________________ सम्मतिप्रकरण-नयकाण्ड 1 यदपि-[ पृ. 32-7 ] 'प्रमाणतदाभासयोस्तुल्यं रूपम्' इत्याद्याशंक्य 'अप्रमाणे अवश्यंभावी बाधकप्रत्ययः, कारणदोषज्ञानं च' इत्यादिना परिहतम् , तदपि न चारु, यतो बाध-कारणदोषज्ञानं मिथ्याप्रत्ययेऽवश्यं भावि, सम्यक्प्रत्यये तदभावो विशेषः प्रदर्शितः, स तु कि A बाधकाऽग्रहणे, B तदभावनिश्चये वा ? A पूर्वस्मिन् पक्षे भ्रान्तदृशस्तद्भावेऽपि तदग्रहणं दृष्टं कश्चित् कालं, एवमत्रापि तदग्रहणं स्यात् / तत्रैतत् स्यात्-भ्रान्तदृशः कञ्चित् कालं तदग्रहेऽपि कालान्तरे बाधकग्रहणम् , सम्यग्दृष्टौ तु कालान्तरेऽपि तदग्रहः, नन्वेतत् सर्वविदां विषयः, नार्वाग्दृशां व्यवहारिणामस्मादृशाम् / . _B बाधकामावनिश्चयोऽपि सम्यग्ज्ञाने B1 किं प्रवृत्तेः प्राग्भवति उत B2 प्रवृत्त्युत्तरकालम् ? यदि पूवः पक्षः स न युक्तः भ्रान्तज्ञानेऽपि तस्य संभवात् प्रभाणत्वप्रसक्तिः स्यात् / अथ प्रवृत्त्युत्तरकालं बाधकाभावनिश्चयः, सोऽपि न युक्तः, बाधकाऽभावनिश्चयमन्तरेणैव प्रवृत्तेरुत्पन्नत्वेन तन्निश्चयस्याकिंचित्करत्वात् / न च बाधकाभावनिश्चये प्रवृत्त्युत्तरकालभाविनि किचिनिमित्तमस्ति / अनुपलब्धिनिमित्तमिति चेत् ? न, तस्या असम्भवात् / तब उनकी प्रेक्षावत्ता यानी बुद्धिमता में क्षति अवश्य होगी। इसलिये अगर संदेहास्पद ज्ञान होगा तो उसमें संदेह क्यों नहीं होगा ? अवश्य होगा। ( तथा कामलादिदोषप्रभवे.... ) तथा दूसरी बात यह है कि कमलारोग में नेत्र पर पीत्त का आवरण रूप दोष से जो ज्ञान होता है वह विपरीत होता है, इसलिये उसके आधार पर अन्य अन्य ज्ञान में विपर्यय की कल्पना का होना भी युक्ति से संगत है। सारांश, ज्ञान में प्रथमत: प्रामाण्य न मान ले कर प्रेक्षापूर्वक ही ज्ञान में प्रामाण्य निश्चित किया जाता है, इसलिये प्रस्तुत प्रयोग में हेतु असिद्ध नहीं है, इस कारण प्रामाण्य परत: सिद्ध होता है। [सम्यग्ज्ञान के बाद बाधाभावरूप विशेष किस प्रकार होगा ? ] "प्रमाण और अप्रमाण दोनों उत्पत्ति में तुल्यरूप वाले होते हैं इसलिये संवाद के बिना प्रामाण्य का निश्चय अशक्य है" इस आशंका को ऊठाकर जो यह परिहार किया गया था कि -'अप्रमाण ज्ञान के बाद बाधक प्रत्यय का और कारण दोष ज्ञान का उदय अवश्य होने से अप्रामाण्य निश्चय हो जायगा, प्रमाण की उत्पत्ति के बाद दोनों में से एक का भी उदय न होने से वहाँ अप्रामाण्य शंका निरवकाश है।'-यह परिहार भी सुन्दर नहीं है क्योंकि मिथ्याज्ञान के बाद बाध और कारण दोषज्ञान अवश्यंभावी हैं और प्रमाणज्ञान में उनका अभावरूप जो विशेष दिखाया गया है उसके ऊपर दो विकल्प हैं / A एक यह कि बाधक का ग्रहण न होने पर उसका अभाव मान लिया गया है या B दूसरा, बाधक के अभाव का ठोस निश्चय कर के उसके अभाव को विशेष रूप में दिखाया जाता है ? A प्रथम पक्ष में यह जानना जरूरी है कि भ्रान्त पुरुषों को बाधक होने पर भी कुछ समय तक उसका बोध नहीं होता है यह देखा गया है तो प्रस्तुत में भी उसी प्रकार बाधक का अग्रहण हो सकता है / ऐसी स्थिति में यह होगा कि अगर वह भ्रान्त दर्शन होगा तब कुछ काल तक बाधक का ग्रह न होने पर भी कालान्तर में बाधक ग्रह होगा। अगर वह सम्यग बोध रूप होगा तो बाधकग्रह क में भी नहीं होगा। किन्तु इस प्रकार कालान्तर में बाधक का ग्रह होगा या नहीं यह तो सर्वज्ञ का विषय है-हमारे जसे अल्पज्ञ व्यवहत्ताओं का विषय नहीं है। [बाधकामावनिश्चय पूर्वकाल में या उत्तरकाल में ? ] B बाधकाभावनिश्चय रूप दूसरे विकल्प में, वह बाधकाभावनिश्चय B1 सम्यग्ज्ञान के