________________ 61 प्रथमखण्ड-का० १-प्रामाण्यवाद B2b नाप्यनुमानतः प्रामाण्य निश्चयः, पूर्वोक्तस्य फलद्वयस्य यथावस्थितार्थत्वलक्षणप्रामाण्यनिश्चये लिंगाभावात् / ज्ञातृव्यापारस्य पूर्वोक्तफलद्वयस्वभावकालिंगसम्भवेऽपि न यथार्थनिश्चायकत्वलक्षणप्रामाण्यनिश्चायकत्वम् / यतल्लिगं संवेदनाख्यं, यथार्थत्वविशिष्टं तन्निश्चये व्याप्रियेत, निविशेषणं वा ? प्रथमपक्षे तस्य यथार्थत्वविशेषणग्रहणे प्रमाणं वक्तव्यं. तच्च न संभवतीति प्रतिपादितम् / निविशेषणस्य फलस्य प्रामाण्यप्रतिपादकत्वे मिथ्याज्ञानफलमपि प्रामाण्यनिश्चायकं स्यादित्यतिप्रसंगः / तत्रतत्स्यात्-पूर्वोक्त फलद्वयमर्थसंवेदनार्थप्रकटतालक्षणमनुभवान्निश्चीयते, यथा तस्य स्वतः पूर्वोक्तस्वरूपनिश्चयः तथा यथार्थत्वस्याऽपि / यथाहि तत्संवेद्यमानं नीलसंवेदनतया संवेद्यते, तथा का अनुभव नहीं होता / सारांश, प्रत्यक्ष से प्रामाण्य का निश्चय नहीं हो सकता है, क्योंकि इन्द्रिय से असम्बद्ध विषय से उत्पन्न होते हए ज्ञान को प्रत्यक्ष संज्ञा ही प्राप्त नहीं होती-यह पहले कह दिया है। [ अनुमान से भी प्रामाण्य का निश्चय असंभव ] अब अगर कहें-प्रामाण्य के निश्चय का निमित्त प्रत्यक्ष भले न हो किन्तु अनुमान हो सकता है अर्थात् अनुमान से प्रामाण्य का निश्चय करेंगे-तो यह भी ठीक नहीं है, क्योंकि यथावस्थितार्थत्व अर्थाऽपरोक्षता एवं तत्संवेदन इन दोनों में से एक भी लिंग रूप नहीं है। कारण, ज्ञातव्यापार के स्वभाव या कार्यरूप में ये दोनों में से कोई भी नहीं दिखाई पड़ता जो प्रामाण्य के अनुमान का साधक हो सके। [ B2b संवेदनरूप लिंग से प्रामाण्यनिश्चय असंभव ] __ अगर आप कहें “यथार्थत्व निश्चय स्वरूप प्रामाण्य का अनुमान करने के लिए लिङ्ग क्या नहीं है ? लिङ्ग मिलता है, वह यह कि ज्ञाता के व्यापार स्वरूप प्रमाणज्ञान के जो दो फल (कार्य) है विज्ञान-संवेदन एवं अर्थप्राकट्य, वे ही कार्यात्मक लिङ्ग बनकर कारणभूत यथार्थत्व स्वरूप प्रामाण्य का अनुमान करा सकते हैं, जैसे कार्यधूम से कारण वह्नि का अनुमान" तो यह भी ठीक नहीं, क्योंकि यहां जो संवेदन रूप लिङ्ग लिया गया, उस पर सवाल यह है कि यह संवेदन (1) क्या यथार्थत्व विशिष्ट होकर ही अनुमिति रूप निश्चय में प्रवृत्त होगा? या (2) यथार्थत्व विशेषण विना ही अनुमापक होगा? तात्पर्य, क्या यथार्थ ही संवेदन प्रामाण्य का निश्चायक है ? या जैसा तैसा भी संवेदन प्रामाण्यानुमापक है ? ( प्रथमपक्षे )....पहले पक्ष में हेतु ने जो 'यथार्थत्व' विशेषण ग्रहण किया, अर्थात् यथार्थ संवेदन ही हेतु बना, इसमें प्रमाण बताना चाहिए। किस प्रमाण से आप कहते हैं, कि हेतु 'संवेदन' यथार्थ ही है, अयथार्थ नहीं ? यह प्रमाण संभवित नहीं हैं, वयोंकि इसमें अन्त में अनवस्था आती है, यह पहले व हा जा चुका है। अगर ऐसा कहें-यथार्थत्व विशेषण विना ही तत्संवेदन स्वरूप फल (कार्य) यह हेतु बन कर कारणभूत विज्ञान के प्रामाण्य का प्रतिपादक यानी अनुमापक होता है तब तो यह आया कि शायद वह संवेदन मिथ्याज्ञान भी हो सकता है, फिर भी उससे इस तरह प्रामाण्य का प्रतिपादन माना जायगा तो किसी भी मिथ्याज्ञान के अयथार्थ फल से उसके जनक पूर्व मिथ्याज्ञान में भी प्रामाण्य का निश्चय हो सकेगा। इस प्रकार 'हेतु यथार्थत्वविशेषण विना ही हेतु बनकर प्रामाण्य का निश्चायक है' इस दूसरे पक्ष में अतिप्रसंग की आपत्ति है।