________________ प्रथमखण्ड-का० १-प्रामाण्यवाद यदि चार्थक्रियाज्ञानमप्यर्थमन्तरेण जाग्रदृशायां भवेत , कतरदन्यज्ञानमर्थाऽव्यभिचारि स्याद् यद्वलेनार्थव्यवस्था क्रियेत ? परतः प्रामाण्यवादिनो बौद्धस्य प्रतिकलमाचरामीत्यभिप्रायवता तस्यानुकूलमेवाचरितम् / स हि 'निरालम्बनाः सर्वे प्रत्ययाः, प्रत्ययत्वात् स्वप्नप्रत्ययवत्' इत्यभ्युपगच्छत्येव, भवता तु जाग्रदृशा-स्वप्नदशयोरभेदं प्रतिपादयता तत्साहाय्यमेवाचरितम् , न हि तद्व्यतिरिक्तः सकती है, किन्तु बाद में हम पास गए व दाह-पाकादि देख कर- यह दाह-पाकादि विशिष्ट वस्तु अग्नि ही है ऐसा अर्थक्रिया ज्ञान हुआ, वहां अब शंका नहीं होगी कि शायद यह अग्नि है या अनग्नि ? क्योंकि यहां दाह-पाकादि का निर्णय उसके साधनभूत अग्निज्ञान पूर्वक हुआ है / अगर साधन ज्ञान पूर्वक अर्थक्रिया ज्ञान होते हुए भी शंका हो सकती कि यह अग्नि है या नहीं? तब तो फलित यह होगा कि शायद अनग्नि से भी दाह-पाकादि हो सके / किन्तु ऐसा कभी देखा नहीं कि अनग्नि को अग्नि समझ कर उसमें कोई प्रवृत्त हुआ तो उसको दाह-पाकादि अर्थक्रिया का ज्ञान होता हो ! यह बात एक ग्रामीण अनपढ गोवालन तक सुविदित है कि अनग्नि से कभी दाह-पाकादि होता नहीं है। प्र०-( न च स्वप्नार्थक्रिया.... ) अगर अर्थक्रिया अवस्तुभूत होने पर अर्थक्रिया ज्ञान नहीं ही होता हो तब स्वप्न में अर्थक्रिया न होने पर भी क्यों अर्थक्रिया ज्ञान दिखाई पडता है ? वैसे ही जाग्रत् अवस्था में भी अर्थक्रिया के अभाव में भी अर्थक्रिया ज्ञान संभवित क्यों नहीं ? उ०-( तस्य तद्विपरीतत्वात्.... ) जाग्रत् अवस्था का अर्थक्रिया ज्ञान स्वप्नावस्था के अर्थक्रिया ज्ञान से विपरीत है / यह इस प्रकार, स्वप्न में होने वाला अर्थक्रिया ज्ञान (1) प्रवृत्ति पूर्वक नहीं होता है एवं (2) व्याकुल होता है, और (3) अस्थिर होता है; जब कि जाग्रद् दशा का अर्थक्रियाज्ञान इससे विपरीत अर्थात् प्रवृत्ति पूर्वक अव्याकुल व स्थिर होता है। उदाहरणार्थ, स्वप्न में मोदक देखा, मोदकार्थी बन कर मोदक खाया व तृप्ति हुई, इस सब स्वाप्निक अर्थक्रिया ज्ञान में (1) सचमुच प्रवृत्ति कहां हुई है ? स्वप्न वाला पुरुष तो वैसे ही निद्रा में निश्चेष्ट पडा है। मोदक के प्रति सचमच उसकी जाने की प्रवृत्ति. सचमच मोदक ग्रहण की एवं सचमुच भक्षण की कोई प्रवति है ही नहीं। अभी स्वप्न में तृप्ति तक की अर्थक्रिया का ज्ञान प्रवृत्ति पूर्वक नहीं हुआ है, (2) यह स्वाप्निक मोदकज्ञान व्याकुलज्ञान है, स्वस्थ चित का ज्ञान नहीं ? इसलिए तो दो मोदक खाने की शक्तिवाला पुरुष स्वप्न में कभी 20-20 मोदक खा लेने का देखता है। (3) स्वाप्निक मोदकतृप्ति का अर्थक्रियाज्ञान अस्थिर होता है, जागने के बाद वह तप्ति गायब हो जाती है और पुरुष भूखा ही ऊठता है / इनसे विपरीत, जाग्रद्दशा का अर्थक्रिया ज्ञान, जैसे कि मोदकतृप्तिज्ञान, प्रवृत्तिपूर्वक होता है, अव्याकुल यानी स्वस्थ चित्त का होता है एवं स्थिर होता है, तृप्ति कई समय तक बनी रहती है। ( कुतस्तेन व्यभिचार.... ) इसलिए स्वप्न में जब सचमुच तृप्ति का ज्ञान ही नहीं, सचमुच अर्थक्रियाज्ञान ही नहीं, तब इसके दृष्टान्त से जाग्रद् दशा के अर्थक्रियाज्ञान में व्यभिचार कैसे लगा सकते हैं, कि बिना अर्थक्रिया ही अर्थक्रियाज्ञान होता है ? (यदि चार्थक्रियाज्ञान०....) अजाग्रद् दशा में अगर अर्थक्रिया के बिना भी अर्थक्रियाज्ञान होता हो ( जैसे कि जलपान बिना भी तृषा शान्ति, अग्नि प्रवृति बिना भी दाहपाकादि होता हो) तब ऐसा कौन सा ज्ञान होगा जो अर्थ का व्यभिचारी न हो। सब ज्ञान में अर्थव्यभिचार की शंका हो सकती है तब ऐसा कौनसा अर्थ का अव्यभिचारी प्रमाणात्मक ज्ञान होगा कि जिस के बल पर प्रमेय अर्थ की व्यवस्था कर सकेंगे ?