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भाष्यके निर्माणकी कथा
प्रकाशनका काम फिर कुछ परिस्थितियोंके वश-खासकर पुरातन जैनवाक्यसूची तथा स्वयम्भूस्तोत्रादिकी भारी विस्तृत प्रस्तावनाओं और दूसरे महत्वके खोजपूर्ण ज़रूरी लेखोंके लिखने एवं ग्रन्थोंके प्रकाशनमें प्रवृत्त होनेके कारण-रुक गया । सन् १६५२ के मार्च मासमें निमोनियाकी बीमारीसे उठकर उस कामको फिरसे हाथमें लिया गया और अनेकान्तमें 'समन्तभद्र-वचनामृत' रूपसे उसके दूसरे अंशोंको देना भी प्रारम्भ किया गया । इतने में ही १३ अप्रेल को वा प्रसिद्ध तांगा-दुर्घटना घटी जिसने प्राणोंको ही संकट में डाल दिया था। इस दुर्घटनासे कान और भी खड़े होगये और इसलिये अस्वस्थ दशामें भी भाष्यके तय्यार अंशोंको प्रकाशमें लान आदिका कार्य यथाशक्य जारी रक्खा गया और जिन कारिकायांकी व्याख्या नहीं लिखी जा सकी थी उनमेंसे अनेक को मात्र अनुवाद के साथ ही प्रकाशित कर दिया गया-बादको यथासमय तत्सम्बन्धी व्याख्याओंकी पूर्ति होती रही। इस तरह अनेक विन्न-बाधाओंको पार कर यह भाष्य सन् १६५३ के उत्तरार्द्धमें बनकर समाप्त हुआ है । और यों इसके निर्माणमें १२ वर्ष लग गये-संकल्पके पूरा होने में तो २० वर्पसे भी ऊपरका समय समझिये । मैं तो इसे स्वामी समन्तभद्रके शब्दोंमें 'अलंध्य शक्ति भवितव्यता'का एक विधान ही समझता हूँ और साथ ही यह भी समझता हूँ कि पिछली भीषण ताँगा-दुर्घटनासे जो मेरा संत्राण हुआ है वह ऐसे सत्संकल्पोंको पूरा करने के लिये ही हुश्रा है। अतः इस ग्रन्थरत्नको वर्तमान रूपमें प्रकाशित देखकर मेरी प्रसन्नताका होना स्वाभाविक है और इसके लिये मैं गुरुदेव स्वामी समन्तभद्रका बहुत आभारी हूँ जिनके वचना तथा आराधनसे मुझे बराबर प्रकाश, धैर्य और बल मिलता रहाहै ।
वीरसेवामन्दिर, दिल्ली फाल्गुन कृष्णा द्वादशी,सं० २०११ जुगलकिशोर मुख्तार