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समीचीन-धर्मशास्त्र महीने में पूरा हो गया । इस तरह प्रतिज्ञाबद्ध होकर मैं एक वर्षमें दो ग्रन्थोंके अनुवादोंको प्रस्तुत करने में समर्थ हो सका । साथ ही, समन्तभद्र-भारतीके सभी उपलब्ध ग्रन्थोंका एक पूरा शब्दकोष भी तय्यार करा लिया गया, जिससे अनुवाद-काय में बड़ीमदद मिली ! इसके पश्चात 'युक्त्यनुशासन' के अनुवादको भी हाथमें लिया गया था और वह एक तिहाईके करीव हो भी चुका था; परन्तु वह अनुवाद दिगम्बर जैन परिषद कानपुरके अधिवेशनकी भेंट होगया-वहाँ बक्सके साथ चोरी चला गया ! इससे चित्तको बहुत आघात पहुँचा और आगेको अनुवादकी प्रवृत्ति ही रुक गई।
कुछ वर्ष बाद घदी एक घटनाके कारण मेरा ध्यान फिरसे भाष्यकी ओर गया और यह खयाल पैदा हुआ कि बड़े पैमानेपर नहीं तो छोटे पैमाने पर ही सही, जीवनके इस लक्ष्यको शीघ्र पूरा करना चाहिय-इससे बहुतोंका हित होगा। तदनुसार कितने ही पदयोंके अनुवाद के साथ 'व्याख्या' को लगा दिया गया और शेष के साथ जल्दी उस लगा देनका विचार स्थिर किया । साथ ही, भाष्यके कुछ अंशोंकी, नमूनेके तौरपर, मृलके साथ अनकान्तपाठकोंके सामने रखना भी शुरू कर दिया, जिससे उन्हें इसके स्वरूपादिका ठीक परिचय प्राप्त हो सके, व इसकी उपयोगिता एवं विशेषताका अनुभव कर सकें और अनुभवी विद्वानोंसे त्रुटियोंकी सूचना तथा व्याख्यादिके स्वरूप-सम्बन्ध में कोई सुझाव भी मिल सके, जिसके लिये उनसे निवेदन किया गया था। भाष्यके कुछ अंश उस समय अनेकान्तके ७वें वर्षकी किरण ६ से १२ (सन् १६४५) में प्रकाशित हुए थे, जिन्हें देखकर बहुतसे विद्वानों तथा अन्य सज्जनोंने पसन्द किया था और भाष्यके विषयमें अपनी उत्कण्ठा व्यक्त करते हुए उसे जल्दी पूरा करके प्रकाशित करनेकी प्रेरणाएँ भी की थीं; परन्तु उसके निर्माण और