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( १२ ) पत्र हमारे संग्रह के हजारों पत्रों में निधिरूप हैं । फिर तो देसाईजी ने हमारे यु० जिनचन्द्रसूरि प्रन्थ की विस्तृत प्रस्तावना लिखी । वे बीकानेर भी आये और कई दिन हमारे यहां रहे। तत्पूर्व और तब सैंकड़ों अज्ञात ग्रन्थों की जानकारी हमने शताधिक पृष्ठों की उन्हें दी, जिसका उपयोग उन्होंने 'जैनगूर्जर कविश्रो' के तीसरे भाग में किया है। इसी तरह पं० लालचन्द भगवानदास गाँधी, बड़ौदा इन्स्ट्रीच्यूट के बड़े विद्वान हैं। उन्होंने जैसलमेर भांडागारीय सूची में समयसुन्दरजी की रचनाओं की सूची दी है, उसमें से कई रचनाएँ हमें कहीं नहीं मिली थीं। इसलिये उनसे भी सर्व प्रथम (ता०२७-१२-२६ के हमारे पत्र का उत्तर ता०१-२-३० को मिला) पत्र व्यवहार कवि की उन रचनाओं के लिये ही हुआ। कलकत्ते के अद्वितीय संग्राहक स्व० पूर्णचन्द्रजी नाहर से भी हमारा सम्बन्ध कविवर की आलोयणा छत्तीसी को लेकर हुअा। हम कविवर की अज्ञात रचनाओं की जानकारी के लिए उनके यहाँ पहुंचे तो पालोयणा छत्तीसी का नाम उनकी सूची में पाप छत्तीसी लिखा देखकर दोनों रचनाओंकी अभिनता की जांच करने के लिए उसकी प्रति निकलवाई। तभी से उनसे हमारा मधुर सम्बन्ध दिनों दिन बढ़ता गया। वे कई बार हमारे इस प्रारम्भिक सम्पर्क की याद दिलाते हुए कहा करते थे कि हमारा और श्रापका सम्बन्ध उस "पाप छत्तीसी" के प्रसङ्ग से हुआ है। ये थोड़े से उदाहरण हैं, जिनसे पाठक समझ सकेंगे कि कविवर की रचनाओं की शोध के द्वारा ही हमारा साहित्यिक, ऐतिहासिक, अन्वेषणात्मक जीवन का प्रारम्भ हुआ और बड़े बड़े विद्वानों के साथ सम्पर्क स्थापित हुआ।
उपाध्याय सुखसागरजी की प्रेरणा और सहयोग भी यहां उल्लेखनीय है। उन्हें भी कविवर के ग्रन्थों के प्रकाशन की ऐसी धुन लगी कि बीकानेर चातुर्मास के बाद सर्व प्रथम सं० १९८८ में कल्याण मन्दिर वृत्ति, जिसकी उस समय एक मात्र प्रति पार्का
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