Book Title: Sagar ke Moti Author(s): Amarmuni Publisher: VeerayatanPage 13
________________ इस पर तिब्बत - नरेश के बेटे और भतीजे जी - जान लगा कर स्वर्ण - संग्रह करने लगे, पर तिब्बत-नरेश को यह बात पसंद न आई। उन्होंने अपने बेटे और भतीजे को ऐसा करने से रोका और कहा-'मेरी मुक्ति के लिए जो स्वर्ण - संग्रह कर रहे हो, उसे आचार्य दीपंकर के स्वागतार्थ रख छोड़ो। मेरी मुक्ति के लिए तुम लोग चेष्टा मत करो, अन्यथा मुझे दुःख होगा। मेरे गरीब देश का सोना, इस तुच्छ देह की मुक्ति में खर्च न हो कर सम्पूर्ण देश की अज्ञानता से मुक्ति में खर्च होना चाहिए।' मृत्यु के कुछ काल पूर्व तिब्बत - नरेश ने अपने भतीजे से कहा था-"पुत्र, तुम रोना मत। यह बड़े सौभाग्य एवं आनन्द की बात है कि आज मैं धर्म और देश के नाम पर बलिदान हो रहा हूँ। ऐसा सुयोग बड़े सौभाग्यशाली को ही मिलता है। किन्तु, मेरी अन्तिम अभिलाषा है कि तुम आचार्य दीपंकर को अवश्य बुलाना । उनके आने से तिब्बत में नई जागृति फैलेगी। आशा है, तुम मेरी यह अभिलाषा अवश्य पूरी करोगे।" आचार्य दीपंकर साठ वर्ष की वृद्धावस्था में भी तिब्बत पहुँचे, तिब्बत नरेश के आत्म बलिदान ने उन्हें मुग्ध कर दिया था। किसी भी समाज या राष्ट्र को सुसंस्कृत एवं सुशिक्षित वनाने के लिए तिब्बत नरेश जैसे आत्म - भोग देने वाले वीरों की आवश्यकता होती है। सागर के मोती: Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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