Book Title: Sagar ke Moti Author(s): Amarmuni Publisher: VeerayatanPage 45
________________ क्षमा की विजय एक रात महर्षि विश्वामित्र ने सोचा-"वशिष्ठ मुझ से शत्रुता रखता है। वह मुझे हर बात में नीचा दिखाना चाहता है। जब तक वह रहेगा, मेरो प्रतिष्ठा नहीं बढ़ सकती । क्योंकि वह तप में मेरे से बहुत आगे बढ़ा हुआ है।" यह क्या सोचा, क्रोध की ज्वाला मन के कण - कण में भड़क उठी। हाथ में तलवार ली, और वशिष्ठजी की कुटिया के पीछे दुबक कर खड़े हो गए। अब एकमात्र यही प्रतीक्षा थी कि "वे कुटिया से बाहर आएँ, कि उनका सिर धड़ से अलगकर दूं।" उधर अरुन्धती वशिष्ठजी से वार्तालाप कर रही थी। अरुन्धती ने कहा-"यह पूर्णचन्द्र की चाँदनी जैसी उज्ज्वल और मन को आह्लाद करने वाली है, काश ! ऐसी ही किसी मनुष्य की कीर्ति होती ?" वशिष्ठजी ने कहा----"हाँ, आजकल तो श्री विश्वामित्रजी की कीर्ति भी ऐसी है। उन जैसा सदाचारी, यशस्वी संत आज दूसरा कौन है ? कोई भी तो नहीं।" यह सुनना था कि विश्वामित्रजी तो पानी - पानी हो गए। उन्हें क्या पता था कि जिसे वे अपना शत्रु समझते हैं, प्रतिष्ठा प्राप्ति में बीच का रोड़ा समझते हैं, वह परोक्ष में उसकी कितने सरल भाव से, कितनी बड़ी प्रशंसा कर रहा है ? परोक्ष प्रशंसा ने विश्वामित्र के हृदय को पिघला दिया। वे तलवार फेंक कर वशिष्ठजी के चरण - कमलों में आ गिरे। सागर के मोती: Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
1 ... 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96