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पर्युषण का अर्थबोध तन को धोते जीवन गुजरा, अब तो मन को धो लो । बाहर के बन्धन, क्या - कुछ है ? मन के बन्धन खोलो ॥
पर के द्वार - द्वार पर भटके, कूकर की गति मति से । लौट आइए, अपने पन में, पर की मति से, रति से ॥
स्वर्णिम स्वप्न विगत हुआ मृत, उसका केवलअनुभव रस बन रहता है। जो भविष्य के विकट क्षणों में, ज्योति जगाता रहता है । चलिए, आगे बढ़िए, मुड़ - मुड़मत पीछे की ओर देखिए । निज - पर की अभ्युन्नति के हित, पद - पद स्वर्णिम स्वप्न देखिए ।
पर्युषण का अर्थबोग
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