Book Title: Sagar ke Moti
Author(s): Amarmuni
Publisher: Veerayatan

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Page 85
________________ नव - वर्ष मया पुराणा वर्ष, आ गयाअभिनव रूप लिए नव वर्ष । विश्व - जगत् के जन - जन का हो, मंगलमय नित नव उत्कर्ष । कोई रोती आँख मिले ना, मिले न मुख की करुण पुकार । हंसता - खिलता हर जीवन हो, खुले धरा पर स्वर्ग - द्वार । धर्म : अन्तज्योति धर्म हृदय की दिव्य ज्योति है, सावधान ! बुझने ना पाये । काम - क्रोध, मद - लोभ, अहं के, अन्धकार में डूब ना जाये ।। देश - काल सापेक्ष नियम हैं, मत - पंथों के भिन्न परस्पर । धर्म सहायक हो सकते हैं, पर न धर्म है, चलें समझकर ॥ ७४. सागर के मोती: Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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