Book Title: Sagar ke Moti
Author(s): Amarmuni
Publisher: Veerayatan

View full book text
Previous | Next

Page 87
________________ स्वर्ग - नरक स्वर्ग कहाँ है, नरक कहाँ है ? पूछ रहे हैं, कब से जन - जन । किन्तु, न देख रहे हैं कैसा, है अपने में, अपना ही मन ।। स्वच्छ - निर्मल अपना ही मन, दिव्य स्वर्ग है मंगलकारी । हिंसक, क्रूर, विकारी अपनामन ही है नरक अमंगलकारी ।। और, न कोई दुःख - मूल है, दुःख - मूल है, निज अज्ञान । दुःख मुक्त हो, सुख - पाना तोनिज स्वरूप पर रखिए ध्यान ॥ गम ७६ खागर के मोती। Jain Education International For Private & Personal Use Only ___www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96