Book Title: Sagar ke Moti
Author(s): Amarmuni
Publisher: Veerayatan

Previous | Next

Page 69
________________ कर्म - योग सत्वहीन नर बातें करते, कर्म - योग से कोसों दूर । मिट्टी के कच्चे घट की ज्यों, जीवन होता चकनाचूर ॥ स्वप्न स्वप्न हैं, स्वप्नों से क्या, होता जीवन का निर्माण ? श्रम की सतत साधना में ही, रहा हुआ है जन · कल्याण ॥ विश्वास घोर निराशा - तमस् घिरा हो, विश्वासों के दीप जलाओ। सब - कुछ टूटे, टूट गिरे, परमत अपना विश्वास गिराओ॥ विश्व बदलता, विश्वासों पर, विश्वासों पर विजय - पराजय । विश्वासों के बल झुकता है, सहसा दुर्गम, अचल हिमालय ।। ५८ सागर के मोती: Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96