Book Title: Sagar ke Moti Author(s): Amarmuni Publisher: VeerayatanPage 70
________________ साधना का विवेक दो अतियों के मध्य, शुद्धजैनत्व बिराजित रहता है। धर्म नहीं अतिवादी होता, निरतिवाद - रत रहता है। देह नहीं शोषित करना है, और न पोषित करना है। शोषित - पोषित मध्य संयमित, रहना निरति विचरना है। मन के जीते जीत उठो मनस्वी, बनो तपस्वी, क्यों रो - रो आँखें मलते हो। मंजिल कुछ भी दूर नहीं है, यदि दृढ़ कदमों से चलते हो। मन का हारा ही हारा है, मन का जीता ही जीता है। तन में प्राण रहे तो क्या है ? मृत है, जो मन से रीता है ।। साधना का विवेक : Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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