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दाता.
जल - संचित करने वाला वह, सागर कितना गंदा खारा । मुक्त बरसने वाले धन की, कितनी मधु निर्मल जल - धारा । दाता सुख के द्वार खोलता, पाता जन्म - जन्म सुख - शान्ति । किन्तु, संग्रही सुख के बदले, पाता सदा दुःख उद्भ्रान्ति ।
ज्ञान - ज्योति
बुझते मन से दीप जलाये, उन दीपों से क्या होगा ? अधरों पर मुस्कान न खेली, फुलझड़ियों से क्या होगा ? लाखों दीप जले शास्त्रों के, पर मन तम से प्लावित है। ज्ञान - ज्योति के स्पर्श बिना मन, कभी न होता द्योतित है।
सागर के मोती:
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