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कर्म में अकर्म
जीवन का पथ पंकिल पथ है, संभल • संभल कर चलना । क्षण - क्षण पल - पल जागृत रहना हो न कभी कुछ स्खलना।
सुख - दुखः दोनों क्षण भंगुर हैं, क्या हँसना, क्या रोना ? रहो अकर्म, कर्म - रत रह कर मन का कलिमल धोना ।।
धरा का देव
प्राणों की आहुति देकर भी, दुःखित, जन का करता त्राण । हानि देख पर की जो तड़पे, वही धरा का देव महान् ।
रोता आया मानव जग में, अच्छा हो अब हँसता जाए। और दूसरे रोतों को भी, जैसे बने हँसाता जाए।
सागर के मोती:
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