Book Title: Sagar ke Moti Author(s): Amarmuni Publisher: VeerayatanPage 59
________________ सम्राट् ने मुस्कराते हुए फिर पूछा--- "क्या मेरे सिर का भी यही हाल होगा ?" यश उत्तर न दे सका। उसे डर लगा कि सच्चा उत्तर देने पर कहीं सम्राट् को बुरा न लगे। पर बाद में जब अशोक ने उसे अभयदान दिया, तो उसने कहा-"महाराज, आपके सिर से भी लोग इसी तरह घृणा करेंगे।" तब सम्राट् ने कहा--- "जो सिर इस तरह का घृणापात्र है, वह यदि भिक्षुओं के आगे झुकता है, तो तुमको बुरा क्यों लगा ?" सत्य अनन्त है ___ एक बार तथागत बुद्ध ने अपनी मुट्ठी में कुछ सूखी पत्तियाँ लेकर अपने प्रिय शिष्य आनन्द से पूछा- "मेरे हाथों की पत्तियों के अतिरिक्त कहीं और भी पत्तियाँ हैं ?" आनन्द ने उत्तर दिया- "पतझड़ की पत्तियाँ सभी तरफ गिर रही हैं। और, वे इतनी अधिक हैं कि उनकी गिनती ही नहीं हो सकती। तब बुद्ध ने कहा-.."इसी तरह मैंने भी तुम्हें मुट्ठी - भर सत्य दिया है, परन्तु उसके अतिरिक्त और भी सत्य है, इतना अधिक कि उसकी गिनती नहीं हो सकती।" सागर के मोती : Jain Education International For Private & Personal Use Only ___www.jainelibrary.orgPage Navigation
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