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मूर्खों के त्याग का आदर्श
एक बूढ़े जन - सेवक की बात है । वह रोज लोगों की सेवा करता था, लोगों का मैल धोता था, गली-मुहल्ले की सफाई करता था, उन्हें रोटी देता था, उन्हें ज्ञान देता था । किन्तु स्वयं थोड़ेसे अन्न - वस्त्र पर निर्वाह करता था । लोगों ने उसकी बहुत तारीफ की।
एक मूर्ख ने कहा - "इसमें तारीफ की कौन सी बात है ? बुड्ढा पूरे कपड़े पहनता है ।"
बुड्ढे सेवक ने सुन लिया और कपड़े फेंक दिए, बस एक लंगोटी लगा ली ।"
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दूसरे मूर्ख ने कहा - "ओ हो, इसमें क्या है ? बुड्ढा दूध, फल तो काफी खा जाता है ।"
बुड्ढे ने दूध भी छोड़ दिया, फल भी छोड़ दिए। फिर एक तीसरे मूर्ख ने कहा - "अरे, यह ती रोटी खाता है । "
बुड्ढे ने कच्चे चने चबाना शुरू कर दिया । चौथे मूर्ख ने कहा - "आखिर खाता तो है । बुड्ढे ने खाना भी छोड़ दिया । पाँचवें मूर्ख ने कहा- "पानी तो पीता है।"
इस पर पानी को भी अन्तिम नमस्कार कर बुड्ढा एक रात को राम - राम करते करते मर गया। सुबह हुई तो न कोई सेवा करने वाला, न रोटी देने वाला । लोग खूब रोये । बुड्ढे की तारीफ की। किन्तु, किसी ने यह नहीं कहा कि हम ने ही तो बुड्ढे को मार दिया ।
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सागर के मोती :
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