Book Title: Sagar ke Moti
Author(s): Amarmuni
Publisher: Veerayatan

Previous | Next

Page 36
________________ मनुष्य नहीं, पशु "तांबे का एक पैसा या एक पाव - भर आटा मिल जाता, बाबूजी ! भूखी आत्मा है । आप आनन्द में रहें।" एक भिखारी बड़ी देर से दरवाजे के सामने चिल्ला रहा था । मकान • मालिक अपनी बैठक में बैठा हुआ हुक्का पी रहा था। झल्ला कर बोला- “एक वार कह दिया, दो वार कह दिया–कि यहाँ कोई आदमी नहीं है। मानेगा नहीं बे ? चिल्ला. चिल्ला कर नाहक तंग कर रहा है।" भिखारी को अब मजाक सूझा। निराश तो हो ही गया था। सोचा, जाते - जाते तसल्ली के लिए एकाध चटकी ही क्यों न ले लू? बोला- "हुजूर को तो मैं आदमी समझ कर ही मांग रहा था । मुझे क्या पता था कि आप आदमी नहीं, पशु हैं।' इतना कह कर, भिखारी नौ - दो ग्यारह हो गया। AUTHODS HTTA मनुष्य नहीं, पशु : Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96