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__“मैं भी सो सकता हुँ पण्डित जवाहरलाल नेहरू, सन् १९२१ में, गाँवों का एक लंबा राष्ट्रिय भ्रमण कर रहे थे । जहाँ भी जाते, जनता के जीवन में एकाकार हो जाते थे। उसी समय की बात है कि-नेहरूजी एक छोटे से गांव में, एक किसान के अतिथि हुए। भोजन के लिए मिली मकई की रूखी रोटी और साग। नेहरूजी ने वही बड़े आनन्द से खाया।
रात को सोते समय प्रश्न हुआ-अब सोने का क्या इन्तजाम हो ? किसान बेचारा घर में से एक खाट उठा लाया। प्रश्न हुआ—“इस पर कौन सोता है ?"
"वहू सोती है।” "आज वह किस पर सोएगी।" "स्त्री है, जमीन पर सो रहेगी।"
"नेहरूजी तमक कर बोले-वाह ! स्त्री जमीन पर सो सकती है, तो मैं भी सो सकता हूं।"
तय कर लेने के बाद जवाहरलालजी के कदम उठने में क्या देर ? किसान के बरामदे में एक तरफ पायल बिछा हुआ था, उसी पर ओवरकोट बिछाकर और एक कंबल, जो मोटर में साथ आया था, ओढ़ कर वे सो गए। किसान के दुःख - सुख में शरीक होकर जवाहरलालजी ने तो जैसे उसके घर पर कब्जा ही कर लिया था। इतने बड़े मेहमान की ऐसी सादगी देखकर उस रात गाँव के किसानों के घर-घर में यही चर्चा रही। मैं भी सो सकता हूं।
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