Book Title: Sagar ke Moti Author(s): Amarmuni Publisher: VeerayatanPage 29
________________ y. hchce मर कर भी अमर भारतीय इतिहास की यह हजारों वर्ष पहले की घटना है। द्वारका का वैभव समाप्त हो चुका था, यादव जाति विलासिता की आग में जल चुकी थी। जीवन - भर जन - सेवा के क्षेत्र में सतत उद्योग करते - करते श्री कृष्ण भी जीवन के किनारे पर पहुँच रहे थे। इसी समय की बात है कि श्री कृष्ण थके हुए जंगल में किसी पेड़ के सहारे पैर-पर-पैर रख कर लेटने की मुद्रा में आराम कर रहे थे। इतने में एक व्याध यानी शिकारी, उस जंगल में आ पहँचा । रात्रि का समय था, कुछ-कुछ अंधेरा हो चला था। अतः उसे लगा कि कोई हिरन पेड़ के सहारे बैठा है। शिकारी जो ठहरा, बस उसने लक्ष्य साध कर तीर छोड़ हो तो दिया । तीर श्री कृष्ण के पाँव में लगा, खून की धारा बहने लगी। शिकारी अपना शिकार पकड़ने के इरादे से नजदीक आया । परन्तु सामने प्रत्यक्ष नरश्रेष्ठ को जख्मो पाया, तो उसे बड़ा दुःख हुआ। अपने हाथों से इतना बड़ा पाप हुआ, यह सोचकर वह रोने लगा। श्रीकृष्ण थोड़े ही समय में संसार से चल बसे । परन्तु, मरने से पहले उस व्याध से कहा-- "हे व्याध ! डरना नहीं। मृत्यु के लिए कुछ-न-कुछ निमित्त मिलता ही है । बस, मेरी मृत्यु के लिए तू निमित्त बन गया।" ऐसा कह कर श्रीकृष्ण ने उसे आशीर्वाद दिया। क्या ऐसी स्थिति में इतना धैर्य रखा जा सकता है ? हाँ, जो रख सकता है, वही महापुरुष होता है। सागर के मोती: Jain Education International For Private & Personal Use Only ___www.jainelibrary.orgPage Navigation
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