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नहीं मैं ऐसे लोगों के साथ भी नहीं रहना चाहता, जो अपने साथी के अपमान को हँस-हँस कर सह रहे हो। इसके साथ मुझे तुम्हारा बेकार नाटक भी नहीं देखना....' बहुरूपिये का तीर तो ठीक निशाने पर लगा था। जैसे ही दर्जी ने नाटक से पलायन किया, नाटक में उपस्थित लोग सकते में आ गये....पशोपेश में पड़ गये...रंग में भंग पड़ गया.....सारा मजा ही किर-किरा हो गया।
गाँव के मुखिया और अन्य लोगों ने बहुरूपिये से कहा कि 'देखो भैया ! दर्जी महोदय तो सचमुच की बुरा मान गये हैं....वे तो रूठ कर जा रहे हैं....ये तो हमारे गाँव के एकमात्र दर्जी हैं ! कैसे भी करो भाई और आप दर्जी को मना लाओ....'
गाँव के समझदार लोगों ने भी दर्जी को मनाने का बहुत प्रयत्न किया, मगर उसने तो अपना निर्णय ले लिया था। सभी के मना करने के बावजूद भी उसने बैलगाड़ी भरी और गाँव छोड़कर जाने लगा। इतने में बहुरूपिया बीच रास्ते में आ गया और बोला- 'क्यों भाई ! देख ली न बंदे की ताकत! गाँव को छोड़कर जाना पड़ा न? जाओ-जाओ...जल्दी जाओ, पीछे मुड़कर भी मत देखना !'
यह सुनकर दर्जी का अभिमान सातवें आसमान पर पहुँच गया और बोला- 'जा...जा....अबे बहुरूपिये के बच्चे ! तू कौन होता है मुझे गाँव से बाहर निकालने वाला ? मैं तो यहीं रहूँगा...तेरी क्या
औकात कि मुझे बाहर निकाल सको ?' ऐसा कहकर उसने अपनी बैलगाड़ी वापिस गाँव की ओर मोड़ दी।
- इस रूपक में जैसे बहुरूपिये ने दर्जी में क्रोध और अहंकार पैदा किया...वैसे ही यह मोहनीय कर्म भी कभी क्रोध करवाता है,
रे कर्म तेरी गति न्यारी...!! /33
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