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यकायक ‘माँ...माँ' कहता हुआ मंत्रीश्वर कामलक्ष्मी के चरणों में गिर पड़ा...कामलक्ष्मी सन्न रह गई....!
वह बोला- 'माँ ! मैं ही तुम्हारा वह पापी पुत्र वेदविचक्षण हूँ, जिसने अज्ञानता में अपनी माँ को वासना का शिकार बनाया...!' घोर पश्चात्ताप हुआ ।
दोनों आचार्य भगवंत के चरणों में पहुँच गये और मन-वचन और काया के सभी पापों का द्रव्य-क्षेत्र - काल-भाव से प्रायश्चित्त कर...चारित्र धर्म अंगीकार कर.... सुविशुद्ध साधना कर दोनों पुण्यात्मा मोक्ष के अविचल सुख को प्राप्त हुए।
इस प्रकार कर्मवाद को समझा हुआ व्यक्ति भयंकर परिस्थितियों में भी अपना मानसिक संतुलन बनाये रखता है और सुविशुद्ध प्रायश्चित्त कर अपनी आत्मा को शुद्ध - बुद्ध - निरंजननिराकार बना लेता है .... जीवन में कैसे भी भयंकर पाप हो गये हो.....आँसूओं के साथ गीतार्थ गुरुभगवंत के चरणों में प्रायश्चित्त ले लीजिये...!
( प्रायश्चित्त कैसे लेना चाहिये ? किन - किन पापों का प्रायश्चित्त लेना चाहिये ? आदि बातों की विस्तृत और क्रमबद्ध जानकारी प्राप्त करने के लिये.... आज ही मँगवाकर पढ़िये......लेखक की सर्वाधिक प्रशंसित पुस्तक सचित्र 'कहीं मुरझा न जाय' हिन्दी • और गुजराती दोनों भाषाओं में उपलब्ध है।)
ज्ञानावरण कर्म के मुख्य पाँच भेद हैं। चूँकि मतिज्ञान आदि ज्ञान के पाँच भेद हैं, अत: उन्हें रोकने वाले ज्ञानावरण कर्म के मतिज्ञानावरण आदि भी पाँच भेद हैं।
रे कर्म तेरी गति न्यारी...!! / 79
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