Book Title: Re Karm Teri Gati Nyari
Author(s): Gunratnasuri
Publisher: Jingun Aradhak Trust

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Page 149
________________ नंदिषेण मुनि ने सहर्ष उन्हें अपने कंधों पर उठा लिया। पर देवमाया से उसने मुनिवर की पीठ पर संडास कर दिया। असह्य दुर्गन्ध चारों ओर फैल गई। ऊपर से वृद्ध साधु धमकाने लगा कि जल्दी-जल्दी चलो....क्या चींटी की तरह चल रहे हो.....तुमने तो वैयावच्च का ठेका ले रखा है न....? जब महामुनि बिना कोई टिप्पणी किये शीघ्रता से चलने लगे तो फिर वृद्ध साधु ने उन्हें फिर प्रताड़ित किया 'अरे ! वैयावच्च के बहाने तुमने मुझे दुःखी-दुःखी कर दिया...ठीक से चलना भी नहीं आता....? साधु बने हो....? दौड़ने के सिवाय और कुछ आता भी है क्या....?' इतना सब कुछ होते हुए भी नंदिषेण महामुनि वैयावच्च और सेवा की भावना से तनिक भी चलित नहीं हुए। सोचने लगे- अरे ! मेरे कारण वृद्ध मुनिराज को कितनी भयंकर वेदना हो रही है....' इस तरह चिन्तनधारा में क्षमाभाव से उनकी सेवा में अपार आनंद का अनुभव करने लगे। आखिर देव प्रकट हुए.....उनके वैयावच्च गुण की मुक्तकंठ से प्रशंसा की और क्षमा माँगकर स्वस्थान पर चले गये। नंदिषेण महामुनि ने स्पृहारहित सरलभाव से धर्मीपुरुष मुनिजनों की अपार-सेवा की.....उनका सत्कार-बहुमान किया। अत: शुभभावों के परिणामस्वरूप उन्होंने शुभनामकर्म का उपार्जन किया। जिससे अगले भव में अत्यन्त सुंदर रूपगुण संपन्न शरीरवाले वसुदेव बने। ये ही वसुदेव श्रीकृष्णवासुदेव के पिताश्री थे। रे कर्म तेरी गति न्यारी...!! /148 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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