Book Title: Re Karm Teri Gati Nyari
Author(s): Gunratnasuri
Publisher: Jingun Aradhak Trust

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Page 147
________________ प्रमोद करते हुए देखकर उसके मनमें अपार ग्लानि हुई...'ओह! ये . सभी लोग कितने सुखी है ?' और मैं कितना दुःखी हूँ ! रोज-रोज यूँ दु:खी होने के बजाय 'और उसने मन ही मन फैसला कर दिया 'आत्महत्या...खुदकुशी !!' और वह चल पड़ा भयानक अटवी के पथ पर....भाग्यवशात् अचानक एक जैन मुनिश्री मिल गये....नंदिषेण के दिल की दर्दीली. कहानी सुनकर मुनिश्री ने वैराग्यमय उपदेश दिया। साधना का महत्व समझाया। सुज्ञ नंदिषेण तुरन्त समझ गया और विरक्त होकर जीवन की श्रेष्ठ साधना चारित्रपंथ पर आरूढ़ हो गया। दीक्षा लेने मात्र से अपनी साधना की इतिश्री न मानकर, नंदिषेणमुनि ने घोर अभिग्रह लिया... 'आज से मुझे बेले (छट्ठ) के पारणे आंयबिल करने और कोई ग्लान बीमार साधु आ जाय तो उनकी पूर्ण सेवा करने के बाद ही पारणा करना....! __नंदिषेणमुनि का वैयावच्च-सेवापूर्ण जीवन चलता रहा...... उन्हें प्रसिद्धि का मोह नहीं था, मगर संकल्प से साधना और साधना से सिद्धि और सिद्धि से प्रसिद्धि तो अपने आप ही मिलती है। उसके लिये किसी से याचना नहीं करनी पड़ती...। नंदिषेण महामुनि के वैयावच्च गुण की सुंगध तिर्यक्लोक में तो क्या...देवलोक में भी फैल गई। इन्द्रलोक में स्वयं इन्द्र ने नंदिषेण महामुनि की जी भर करके प्रशंसा की। वहाँ उपस्थित दो देवों को यह बात हजम नहीं हुई। परीक्षा लेने के उद्देश्य से पृथ्वी पर आये और एक रोगग्रस्त वृद्ध साधु का वेश बनाकर रत्नपुरनगरी के बाहर बैठ गया तथा दूसरे रे कर्म तेरी गति न्यारी...!! /146 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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