Book Title: Re Karm Teri Gati Nyari
Author(s): Gunratnasuri
Publisher: Jingun Aradhak Trust

View full book text
Previous | Next

Page 159
________________ कनकोदरी एक भयंकर कुकृत्य कर बैठी। उसने सोचा 'न रहे बाँस, न बजे बाँसुरी.....' भगवान की मूर्ति है इसीलिये वह पूजा करती है न ! तभी तो उसकी प्रशंसा होती है....' मूलं नास्ति कुत: शाखा' इस अशुभ विचारधारा में आकर उसने अरिहंत परमात्मा की मूर्ति उठाकर कूड़ा-करकट में छूपा दी....गंदगी में सुला दी। (विस्तृत मर्मस्पर्शी कहानी के लिये लेखक की सचित्र 'एक थी राजकुमारी' पढ़िये) । इस प्रकार कनकोदरी ने पूजा में विघ्न डाला और परमात्मा की भयंकर आशातना की । इस अपकृत्य से कनकोदरी ने उपभोगान्तराय आदि कर्म बाँधे । ( आप को आश्चर्य होगा.... इस कर्मवाद से अनभिज्ञ लोग आज भी ऐसे हीनकृत्य कर बैठते हैं.... मेवाड़ में एक गाँव के मूढ गँवार लोगों ने परमात्मा की मूर्ति को तालाब में डाल दी, ओह! इस अपकृत्य से बाँधे गये भयंकर कर्मों से न जाने वे किस भव में छूटेंगे ? ) नकोदरी का जीव ही अंजनाकुमारी बना। बाँधे हुए कर्म का उदय हुआ और उसे बाईस साल तक पतिवियोग हुआ..... तदन्तर घर, कपड़े, आभूषण आदि में अन्तराय पड़ा और जंगल में दर-दर भटकना पड़ा....कितना भयंकर फल है अन्तराय कर्म का ! यह तो सामान्य-सी बात हुई .... विशेष विचार भी किया जा सकता है अर्थात् अन्तराय कर्म के जो पाँच भेद हैं, उसके अलगअलग बँध हेतु भी बताये जा सकते हैं। Jain Education International रे कर्म तेरी गति न्यारी...!! / 158 For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 157 158 159 160 161 162 163 164 165 166 167 168 169 170