________________
2. दुगंछा करनी मुनि के मलमलीन वस्त्र और गात्र देखकर दुगंछा नहीं करनी चाहिये। मुनि के मैले-कुचैले कपड़े और तन-बदन को देखकर नाक-भौं सिकुड़ने वाला नीचगोत्र बाँधता है।
'मुनि मल वस्त्रनी घृणा करता, नीच गोत्र बँधाय रे प्राणी....' श्रावकवर्ग हर चतुर्दशी को अतिचार में बोलते भी हैं....'साधु-साध्वी तणा मलमलीन गात्र देखी, दुगंछा कीधी।
इसमें दो बातें स्पष्ट उजागर होती है......शक्य हो तब तक साधु-साध्वी को वर्ष में एक ही बार अर्थात् चौमासे के पूर्व कपड़े धोने चाहिये...(उउबद्धस्स.....ओघनियुक्ति 349 श्लोक) ऐसा करने पर स्वाभाविक है कि कपड़े मैले रहेंगे....और उस वक्त यदि कोई उनसे घृणा करता है या उनकी दुगंछा करता है तो उसे नीचगोत्र का बंध होता है।
मेतारज मुनि मेतारज मुनि के जीव ने पूर्वभव में चारित्र लिया था। परन्तु ब्राह्मण के कुल में जन्म लिया हुआ था..... ब्राह्मण के शौचवादी संस्कार रग-रग में बसे हुए थे...अत: चारित्र पालन करना अच्छा है, मगर मैले-कुचले रहना अच्छा नहीं...। अचित्त गर्म पानी से स्नान न भी करे तो भी कपड़ा भिगो कर शरीर का मैल साफ कर देते हैं तो कौन-सा बड़ा पाप लग जाता है ? मैले-मैले रहना अच्छा नहीं। यह मैल की दुगंछा हुई। प्रायश्चित्त नहीं लिया (प्रायश्चित्त ले लिया होता तो ऐसे मानसिक पापों का प्रायश्चित्त कोई मासक्षमण थोड़े ही आता हैं?) इससे नीचगोत्र बँध गया। अत: तीसरे भव में वे चंडाल के कुल में उत्पन्न हुए।
रे कर्म तेरी गति न्यारी...!! /151
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org