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द. देवगतिनामकर्म - जिसके उदय से जीव का देवगति मिलती है.......
2. जातिनामकर्म
जिसके उदय से जीव का एकेन्द्रिय आदि शब्दों से व्यवहार किया जाता है। उसके पाँच भेद हैं...... चूँकि इन्द्रियाँ पाँच हैं।
अ. एकेन्द्रियजातिनामकर्म : जिसके उदय से जीव का एकेन्द्रिय आदि शब्दों से व्यवहार किया जाता है।
ब. द्वीन्द्रियनामकर्म : जिसके उदय से द्वीन्द्रिय नाम से जीव का व्यवहार होता है
स. त्रीन्द्रियजातिकर्म : जिसके उदय से त्रीन्द्रिय नाम से जीव का व्यवहार होता है।
द. चतुरिन्द्रियजातिकर्म : जिसके उदय से चतुरिन्द्रिय नाम से जीव का व्यवहार होता है।
य. पंचेन्द्रियजातिकर्म: जिसके उदय से पंचेन्द्रिय नाम से जीव का व्यवहार होता है।
लोक में इन्हीं संस्कृत शब्दों के प्राकृतशब्द प्रचलित हैं .... अर्थ में फर्क नहीं है। एगिंदिया - बेइंदिया- तेइन्दिया - चउरिन्दियापंचिन्दिया ।
3. शरीरनामकर्म
जिस कर्म के उदय से जीव औदारिकवर्गणा आदि के पुद्गलों को ग्रहण कर औदारिक आदि शरीर रूप बनाता है। उसके पाँच भेद हैं.....
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रे कर्म तेरी गति न्यारी...!! / 129
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