Book Title: Re Karm Teri Gati Nyari
Author(s): Gunratnasuri
Publisher: Jingun Aradhak Trust

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Page 131
________________ अ. औदारिक शरीरनामकर्म - जिसके उदय से जीव औदारिकवर्गणा के पुद्गलों को ग्रहण कर औदारिक शरीर बनाता है। ब. वैक्रियशरीरनामकर्म - जिसके उदय से जीव वैक्रियवर्गणा के पुद्गलों को ग्रहण कर वैक्रियशरीर बनाता है। स. आहारक शरीरनामकर्म - जिसके उदय से जीव आहारकवर्गणा के पुद्गलों को ग्रहण कर आहारकशरीर बनाता है। द. तैजसशरीरनामकर्म जिसके उदय से जीव तैजसवर्गणा के पुद्गलों को ग्रहण कर तैजसशरीर बनाता है। य. कार्मणशरीरनामकर्म - जिसके उदय से जीव कार्मणवर्गणा के पुद्गलों को ग्रहण कर कार्मणशरीर बनाता है। 4. अंगोपांग नामकर्म जिस कर्म के उदय से जीव को मस्तक, छाती, पेट, पीठ, हाथ पाँव.... ये सभी अंग, अंगुली आदि उपांग एवं रेखाएँ आदि अंगोपांग मिलते हैं, उस कर्म को अंगोपांगनामकर्म कहते हैं। अ. औदारिक अंगोपांग नामकर्म ब. वैक्रिय अंगोपांग नामकर्म स. आहारक अंगोपांग नामकर्म तैजस और कार्मण शरीर के अंगोपांग नहीं होते हैं.... एकेन्द्रिय जीव को भी अंगोपांग नहीं होते हैं। पत्ते, डाल, टहनियाँ आदि भिन्न-भिन्न आकार के शरीर ही है..... न किसी के अंग, न किसी के उपांग । Jain Education International रे कर्म तेरी गति न्यारी...!! / 130 For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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