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भाई वसुसार कुछ पढ़ा-लिखा नहीं है तो उसे कितनी मजा है ? सुख से सोता है, सुख से खाता है....पीता है। मुझे भी ऐसा सुख प्राप्त हो !' इस प्रकार ज्ञान के प्रति द्वेष रख कर आचार्यश्री बारह दिन तक मौन रहे। और किसी को ज्ञान दिया नहीं, अत: भयंकर ज्ञानावरणीय कर्म बाँधा।
संयम का पालन किया था, अत: मरकर राजा के पुत्ररूप में उत्पन्न हुए। नाम रखा गया वरदत्त । परन्तु ज्ञानावरणीय कर्म तीव्र बाँधा हुआ था। अत: विद्या चढ़ती नहीं थी।
ज्ञानावरणीय के साथ पूर्वभव में अशातावेदनीय कर्म भी बाँधा हुआ था, अत: यौवनावस्था में कोढ़ रोग भी हो गया।
एक बार वरदत्त के पिता अजितसेन राजा ने ज्ञानी गुरु विजयसेन को इसका कारण पूछा तो उन्होंने वरदत्त का पूर्वभव कह सुनाया। सुनते ही वरदत्तकुमार को जातिस्मरणज्ञान हो गया।
गुरु भगवंत के कहने से वरदत्तकुमार ने ज्ञानपंचमी की आराधना की। उस आराधना के प्रभाव से पूर्वभव का कर्म कुछ हल्का हुआ...अत: कुष्ठरोग-कोढ़ ठीक हुआ और ज्ञान की प्राप्ति हुई। दीक्षा लेकर वरदत्त ने आत्मकल्याण किया।
2. निह्नव __ स्वयं ज्यादा जानने लग जाय अथवा स्वयं को ज्यादा प्रसिद्धि मिल जाय तो अपने गुरु का नाम छुपाना। जिससे लोगों को यह न हो कि ऐसे कम ज्ञान वाले के पास पढ़े हैं ? इस तरह गुरु का नाम छुपाना निह्नव कहलाता है।
रे कर्म तेरी गति न्यारी...!! /87
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