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चंडाल तो राजा के आदेश का गुलाम था। मुनि को हाथजोड़कर बोला- 'भगवन् ! इस पापी पेट के कारण राजा के हुक्म से आपके गले पर मेरी यह शमशीर चलेगी....आपका अपराध क्या है? मुझे पता नहीं है। मैं आपको छोड़ तो नहीं सकता हूँ मगर, मारने से पहले मैं आपको इतना समय जरूर दे सकता हूँ कि आप अपने इष्टदेव का स्मरण करें।'
समता के सागर झांझरिया ऋषि ने अनशन का पचक्खाण कर लिया और चौरासी लाख जीवायोनि को खमाने लगे......| राजा का तनिक भी दोष नहीं देखा और कर्म का विचार करने लगे कि मैंने ही पूर्वभवों में कहीं न कहीं ऐसा कर्मबन्ध किया होगा........ जिसके उदय से मुझे यह भुगतना पड़ रहा है। मारा है तो मरना पड़ेगा........काटा है, तो कटना पड़ेगा....अत एव क्यों नहीं मैं समाधि पूर्वक सहन कर एकान्त कर्म निर्जरा करूँ ? राजा को दोषी मानकर उस पर द्वेष या तिरस्कार-फिटकार करके क्यों अपनी आत्मा को कर्म से कलुषित करूँ?
इस प्रकार कर्म का चिंतन करते-करते झांझरिया मुनि धर्म ध्यान से शुक्ल ध्यान पर आरूढ हुए और उसी क्षण चांडाल ने अपनी तलवार चला दी। मुनि की गर्दन कटकर नीचे गिरने से पूर्व ही मुनि ने अपनी कमाई कर ली और साधना पूरी कर दी। घाति कर्मों का क्षय कर उन्होंने केवलज्ञान को प्राप्त कर लिया....और शेष • चार अघाति कर्मों को आयोजिका करण के माध्यम से आयुष्य कर्म के साथ सम बनाकर शैलशी अवस्था पर आरूढ़ होकर संपूर्ण कर्मों का क्षय किया और गर्दन कट कर नीचे गिरते ही झांझरिया मुनि मोक्ष में चले गये...! गर्दन कटी....लहू बहने लगा....पास में पड़े हुए रजोहरण
रे कर्म तेरी गति न्यारी...!! /37
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