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हथकड़ी और बेड़ी में बँधा हुआ व्यक्ति नियत समय तक कारागृह में रहता है और कहीं इधर-उधर टहलने के बहाने जा - आ नहीं सकता है, उसी तरह आयुष्यकर्म का उदय चल रहा हो तब तक आत्मा अन्य भव में या मोक्ष में जा नहीं सकती है।
आयुष्य कर्म के उदय से जन्म, मृत्यु आदि विकृतियाँ पैदा होती है। जीव को अमुक-अमुक स्थानों पर रहने की इच्छा न होने पर भी 'आयुष्य कर्म बलवान है अर्थात् आयुष्य कर्म का उदय होने से जब तक स्थिति-आयु पूर्ण न हो तब तक अनिच्छा से भी रहना ही पड़ता है......
और अपार सुख-समृद्धि के स्थानों को छोड़ने की इच्छा न भी हो तो भी आयुष्य पूर्ण होने पर छोड़ना ही पड़ता है।
देवलोक का देव मरना नहीं चाहता है, मगर आयुष्य पूरा होने पर मरना ही पड़ता है।
नरक का जीव पल-पल मौत की इच्छा करता है तो भी आयुष्य कर्म पूरा न हो तब तक वह मर नहीं सकता है। सातवीं नरक का आयुष्य तेत्री सागरोपम होता है । एक पल्योपम में असंख्यात वर्ष होते हैं। इतना लंबा आयुष्य सातवीं नरक का होता है। जिस वक्त नारकी उत्पन्न होता है... तभी से वह उस अपार वेदना से छुटकारा पाने के लिये मौत की झंखना करता है। मगर मौत उससे कोसों दूर रहती है... क्योंकि आयुष्यकर्म पूरा न हो तब तक वह वहाँ से दूसरी गति में जा नहीं सकता......
ऊपरोक्त हकीकत हम शास्त्रोक्त नागश्री ब्राह्मणी के दृष्टांत से समझेंगे।
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रे कर्म तेरी गति न्यारी...!! / 59
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