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खतरनाक माना जाता है। मोहनीयकर्म जब तक संपूर्ण नष्ट नहीं होता तब तक केवलज्ञान नहीं होता है।
आत्मा का चौथा गुण वीतरागता है । उसे रोकनेवाला कर्म मोहनीय कर्म है। इसे दारू की उपमा दी गई है। शराब पीने वाला इंसान शराब के नशे में चूर होकर अपना विवेक खो बैठता है ... । कुत्ते की पेशाब को शरबत Lemon Soda कोको कोला या थम्स अप मानकर पी लेता है... गटर में भी पड़ा रहता है... कोई ठौर न ठिकाना.....जहाँ-तहाँ पड़ा रहता है, दु:ख भुगतता है। उसी तरह यह आत्मा भी मोहनीय कर्म के उदय से अपनी वीतराग अवस्था भूल बैठती है।
मोह की शराब से धुत्त होकर जीव भौतिक सुखों के पीछे दिवाना बनकर अनेक प्रकार के मिथ्यात्व, राग, द्वेष, अविरति, हास्य, शोक, रति, अरति, क्रोध, मान, माया, लोभ का आत्मा भोग बनती है। इस प्रकार मोहनीय कर्म की मिथ्यात्व आदि विकृतियाँ होती हैं ।
5. आयुष्य कर्म
आत्मा का पाँचवाँ गुण अक्षयस्थिति है, अर्थात् आत्मा एक स्थान से दूसरे स्थान पर नहीं जाती है। ऐसा आत्मा का मूल स्वभाव है। परंतु आयुष्य कर्म उसे एक स्थान पर टिकने नहीं देता। नियत समय तक ही अमुक स्थान पर वह आत्मा रूक सकती है। उसके बाद उसे किसी अन्य जगह पर जाना ही पड़ता है। वहाँ पर भी आयुष्य कर्म उसे अमुक निश्चित समय तक ही रहने देता है।
आयुष्य कर्म हथकड़ी (Cufflinks) के समान है। जैसे
रे कर्म तेरी गति न्यारी...!! / 58
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