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तो इतना तो कर सकते हो न...? एक रस्सी को गाँठ लगा लो...... और जब भी खाना-पीना हो उस वक्त उस गाँठ को खोल देना।' इस प्रकार उसे गंठसी पच्चक्खाण की जानकारी दी ।
उसको बात जँच गई। उसने गंठसी पच्चक्खाण चालू कर दिया । वह दृढता से नियम का पालन करने लगा। एक बार कसौटी आ गई, गाँठ खुली ही नहीं ! फिर भी समाधि से उसने लिये हुए नियम को पालने की मन में ठान ली। आयुष्य पूरा हो गया। जुलाहे का जीव गंठसी पच्चक्खाण के पालन के बल पर कपर्दी देव हुआ ।
सिद्धगिरिराज पर उस समय मिथ्यादृष्टि कपर्दी यक्ष का उपद्रव था। श्रीसंघ को वह बहुत तंग करता था। नया उत्पन्न हुआ कपर्दी यक्ष उपयोग देकर देख रहा था कि 'मेरे उपकारी वज्रस्वामी हैं' और वह दौड़कर आया और चरणों में गिर पड़ा। प्रभो ! मुझे सेवा का मौका दीजिये ।'
आचार्य भगवन्त ने श्री सिद्धगिरिराज की रक्षा और उपद्रव निवारण की बात कही। संघ कायोत्सर्ग में रहा और सम्यग्दृष्टि कपर्दी यक्ष (जुलाहे के जीव) ने मिथ्यादृष्टि कपर्दी यक्ष को हरा दिया। संघ ने नये कपर्दी यक्ष (कवड यक्ष) को श्री शत्रुंजय महातीर्थ के अधिष्ठायक के रूप से स्थापित किया।
गंठसी-वेढसी एवं मुट्ठसी पचक्खाण से महिने में सत्ताईस उपवास का फल मिलता है। चूँकि खाने-पीने के सिवाय का पूरा समय चार आहार के त्याग में ही जाता है।
संपूर्ण दिन का खाने-पीने का कुल समय कितना ? दो से ढाई घंटे के करीब.....महीने के खाने के घंटे बासठ हुए अर्थात् तीन दिन हुए.... तीस में से तीन दिन निकाल दो तो बचे सत्ताईस.....
रे कर्म तेरी गति न्यारी...!! / 69
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