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अध्ययन वे रट नहीं पा रहे थे। लाख कोशिश करने के बावजूद भी वे बिल्कुल असफल रहे। तब गुरुभगवंत ने कहा- खैर, याद नहीं होता है तो कोई बात नहीं.... सिर्फ इतना कंठस्थ कर लो...' मा रूष, मा तुष' अर्थात् किसी पर रोष - द्वेष न कर और किसी पर तोष-राग न कर (भौतिक सुख आदि की प्राप्ति में खुश भी न बन और अप्राप्ति में रोष भी मत रख !)
परन्तु उन वृद्धमुनि को तो ये भी शब्द सही याद न रहे। ऊफ ! ज्ञानावरण कर्म का उदय कितना भयंकर है ! पास वाले याद दिलाते तो भी भूल जाते - 'मा रूष मा तुष' के बदले 'मास तुस' ही रटते थे। गुरु के ऊपर अपार श्रद्धा थी । अत: शुद्ध भाव से यह अशुद्ध रूप उन्होंने बारह साल रटा। लोग हँसते भी थे, नाम भी उनका बदल दिया 'मासतुसमुनि' । फिर भी वे क्रोध नहीं करते थे....बल्कि अपार समता रखते थे। रटने में उद्वेग नहीं लाया, बोर नहीं हुए। अत: ज्ञानावरण कर्म कटने लगा। बारह साल के अंत में उन्हें केवलज्ञान प्रगट हुआ ।
इसी तरह ज्ञानावरण कर्म का बादल दूर हो जाने पर आत्मा के अंदर पड़ा हुआ केवलज्ञान रूपी सूर्य प्रकट हो जाता है। 2. दर्शनावरण कर्म
ज्ञान- वस्तु का विशेष बोध, दर्शन - वस्तु का सामान्य बोध । जैसे कि 'कुछ है' ऐसा आभास होता है, उसे दर्शन कहते हैं और 'यह वृक्ष है.... यह मनुष्य हैं' ऐसा विशेष बोध हमें पैदा होता है उसे ज्ञान कहते हैं।
आत्मा का दूसरा गुण अनंतदर्शन है। उसे दर्शनावरण कर्म रोकता है। यह कर्म (Doorkeeper) द्वारपालके समान है। जैसे
रे कर्म तेरी गति न्यारी...!! / 56
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