Book Title: Pushkarmuni Abhinandan Granth
Author(s): Devendramuni, A D Batra, Shreechand Surana
Publisher: Rajasthankesari Adhyatmayogi Upadhyay Shree Pushkar Muni Abhinandan Granth Prakashan Samiti
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प्रथम खण्ड: श्रद्धार्चन
१६
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उन्हें सूचित कर दो, ताकि मैं उनसे परामर्श करके यथो- और उसके प्रतिफल के रूप में 'जिन्दगी की मुस्कान' और चित कर सकूँ।" ज्यों ही मेरा सन्देश आपके पास पहुंचा, 'जिन्दगी की लहरें ये दो प्रवचन-पुस्तकें प्रकाशित हुई। त्यों ही आपश्री शीघ्र ही ऊपर जनरल वार्ड में जहाँ हम सम्पादन के विषय में भी आपने अपनी सन्तुष्टि और प्रसठहरे हुए थे, आए । आपने आते ही पहले तो गुरुभ्राता नता अभिव्यक्त की और अपने आशीर्वादात्मक उद्गार मुनिश्री के पार्थिव शरीर के पास पहुंचे, उन्हें देखकर भी निकाले । आपने अफसोस व्यक्त किया-"कितना सुन्दर सरल सरस उसके बाद फिर मैं कुछ दिन जोधपुर रह कर खीचनजीवन था मुनिजी का ! वैसे कोई भी लक्षण मृत्यु के फलौदी की ओर चला गया। और फिर वहाँ से पूज्य प्रतीत नहीं हो रहे थे, परन्तु आयुष्यबल समाप्त हो जाने मुनिश्री संतबालजी महाराज के द्वारा भविष्य में आगामी से ये हमें छोड़कर चल बसे ! अब तो यही हो सकता है वर्ष में होने साधुसाध्वी शिविर के लिए गुजरात का कि फोन कराकर श्रीकानमलजी नाहटा (संघ के अग्रगण्य) आह्वान होने पर मैं गुजरात चला गया, उसके बाद बम्बई को बुलाया जाय और वे जैसा कहें, वैसा किया जाय ! और फिर मद्रास आदि क्षेत्रों में। तब तक हम इन्हें नये कपड़े पहना कर इनके शरीर को इतने दूर-सुदूर क्षेत्रों में भ्रमण होने के बावजूद भी वोसिरा दें।" तुरन्त श्रीकानमलजी नाहटा को फोन आपश्री की ओर से पंडित श्रीदेवेन्द्रमुनिजी महाराज का किया गया, परन्तु उस दिन चतुर्दशी होने से वे पौषधशाला यदा-कदा पत्र आता रहता था। मेरठ में जब मैं था, तब में पौषध में थे। अतः उनके सुपुत्र ने कहा-"अभी तो भी मुझे आपने स्मरण करके कृतार्थ किया और दिल्ली में कुछ नहीं हो सकता है। सुबह सबको सूचित करके हम था तब भी और आगरा आने के बाद तो पंडित श्रीदेवेन्द्र लोग मुनिश्री के शरीर का अन्तिम संस्कार कर देंगे।" मुनिजी द्वारा लिखित साहित्य मुझे बार-बार मिलता अतः मैंने महाराजश्री से पूछा-“अब मुझे क्या करना रहा। चाहिए? मैं यह रात यहीं काटुं, या और कहीं ?" आप- आप में एक गुण विशेष रूप से परिपक्व है कि आप श्री ने कहा- "मुनिजी ! आप घबराइए नहीं । हम आपके किसी भी गुणवान, चरित्रवान, साधुता के मूल गुणों से हैं, आप हमारे हैं। आप मेरे साथ अपना सब सामान सम्पन्न साधु-सन्तों, विद्वानों एवं विचारकों को आदर लेकर नीचे, जहाँ हम ठहरे हैं, वहाँ चलिए । और वहीं देते हैं। उनकी शक्तियों से पर्याप्त लाभ उठाते हैं। शयन कीजिए।"
दो वर्ष पहले जब आप चिंचणी (जिला थाणा) में हमने गुरुभ्राताजी के शरीर को वोसिरा दिया और पूज्य मुनिश्री संतबालजी महाराज की प्रेरणा से स्थापित मैं सामान लेकर पूज्य पुष्करमुनिजी महाराज के साथ महाबीर नगर, अन्तरराष्ट्रीय केन्द्र पधारे और स्थानकचल पड़ा।
वासी जैन समाज द्वारा उपेक्षित किन्तु साधुता और ___ मेरे लिए वह रात्रि अत्यन्त भयावह थी। लेकिन वत्सलता के गुणों से ओत-प्रोत, तेजस्वी, सद्गुणों से आपश्री के आत्मीयता भरे आश्वासन ने मुझे आश्वस्त- सम्पन्न चारित्रवान मुनिवर श्री संतबालजी महाराज से विश्वस्त किया । यद्यपि नींद तो उस रात को पूरी तरह दिल खोल कर समाजनिर्माण एवं आत्मकल्याण की से नहीं आई। फिर भी आप और आपके शिष्यवृन्द ने साधना की प्रगति के बारे में बातचीत की। उनकी प्रेरणा मेरे साथ जो आत्मीयता-भरा व्यवहार किया, उसे मैं भूल से प्रचलित समाजसेवा की प्रवृत्तियों, समाज-निर्माण के नहीं सकता।
कार्यकलापों के विषय में अपने उद्गार भी प्रगट किये। यह आत्मीयतापूर्ण उदार व्यवहार आपके उदार आपके प्रखर उदार व्यक्तित्व से प्रभावित होकर महाव्यक्तित्व की अमिट छाप मेरे मन पर अंकित कर गया। महिम आचार्य सम्राट् श्री आनन्दऋषिजी महाराज ने मेरे जीवन में यह मधुर संस्मरण चिरन्तन रहेगा। आपको वर्धमान स्थानकवासी श्रमणसंघ के उपाध्याय-पद
दूसरे दिन प्रातःकाल जोधपुर श्रावकसंघ के अग्रगण्य से विभूषित किया है। आए। उनके सामने आपने सारी वस्तुस्थिति प्रगट कर इन कतिपय संस्मरणों के दर्पण में आपके उदार, दी और उन्हें अपनी कर्तव्य दिशा का बोध करा दिया। अद्भुत एवं आकर्षक महनीय व्यक्तित्व की स्पष्ट झाँकी कहना होगा कि आपकी प्रेरणा से जोधपुर के श्रावक वर्ग देखी जा सकती है। इसलिए अधिक न कहकर, संक्षेप में ने उदारतापूर्वक मेरे स्वर्गीय गुरुभ्राता का अन्तिम संस्कार इतना ही कहूँगा कि आप प्रखरयशस्वी एवं चिरायु होकर खूब धूमधाम से किया और मंगलपाठ सुनकर विदा हुए। अपने उदात्त गुणों युक्त आकर्षक व्यक्तित्व के द्वारा आत्म
उसके पश्चात् कुछ दिनों तक मुझे आपने अपने पास कल्याण के साथ-साथ समाज का चरित्र-निर्माण करते ही रखा मेरे अस्वस्थ एवं किंकर्तव्यमूढ़ मन को आपने स्वस्थ हुए संघ की चिरकाल तक सेवा करें । जैन-शासन और एवं शान्त किया । फिर मैं पुनः लेखनकार्य में प्रवृत्त हुआ श्रमणसंघ को उदार, उज्ज्वल एवं विजयी बनाएँ।
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