Book Title: Prameyratnamala
Author(s): Shrimallaghu Anantvirya, Rameshchandra Jain
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
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प्रमेयरत्नमालायां
को वा लौकिकः परीक्षको वा । तेन ज्ञानेन' प्रतिभासितु शीलं यस्य स तथोक्तस्तं प्रत्यक्षविषयमिच्छन् विषयिधर्मस्य विषये उपचारात् तदेव ज्ञानमेव तथा प्रत्यक्षत्वेन नेच्छेत् ? अपि विच्छेदेव । अन्यथा अप्रामाणिकत्वप्रसङ्गः स्यादित्यर्थः। अत्रोदाहरणमाह
प्रदीपवत् ॥१२॥ इदमत्र तात्पर्यम्-ज्ञानं स्वावभासने स्वातिरिक्तसजातीयार्थान्तरानपेक्षं प्रत्यक्षार्थगुणत्वे सति अदृष्टानुयायिकरणत्वात्, प्रदीपभासुराकारवत् ।
अथ भवतु नामोक्तलक्षणलक्षितं प्रमाणम्, तथापि तत्प्रामाण्यं स्वतः परतो वा ? न तावत्स्वतः, अविप्रतिपत्तिप्रसङ्गात् । नापि परतः, अनवस्थाप्रसङ्गात् इति
मानता हुआ भी ज्ञान के ही प्रत्यक्ष होने की इच्छा न करे ।। ११ ।।
कौन लौकिक या परीक्षक है, जो उस ज्ञान से प्रतिभासन शील पदार्थ को प्रत्यक्ष ज्ञान का विषय मानते हए भी उसी ज्ञान को प्रत्यक्ष रूप से स्वीकार न करे ? अपितु वह स्वीकार करेगा ही । अन्यथा अप्रामाणिकपने, का प्रसंग होगा।
इस विषय में उदाहरण कहते हैंसत्रार्थ-दीपक के समान ॥ १२ ॥ विशेष-जिस प्रकार दीपक की स्वप्रकाशता या प्रत्यक्षता के बिना उससे प्रतिभासित हुए पदार्थ की प्रकाशता या प्रत्यक्षता नहीं बनती है। उसी प्रकार प्रमाण की प्रत्यक्षता के बिना भी उसके द्वारा प्रतिभासित. पदार्थ की प्रत्यक्षता नहीं होगी।
यहाँ तात्पर्य यह है-ज्ञान अपने आपके प्रतिभास करने में अपने से अतिरिक्त सजातीय अन्य पदार्थों की अपेक्षा से रहित है। क्योंकि पदार्थ को प्रत्यक्ष करने के गुण से युक्त होकर अदृष्ट अनुयायी करण वाला है, जैसे कि दीपक का भासुराकार ।
शङ्का-प्रमाण कहे हुए लक्षण से लक्षित होवे, तथापि वह प्रामाण्य स्वतः होता है या परतः ? स्वतः तो हो ही नहीं सकता; क्योंकि फिर तो किसी को विवाद ही नहीं रहेगा । प्रमाण का प्रामाण्य परतः भी नहीं हो सकता । परतः मानने पर अनवस्था का प्रसङ्ग आयगा। इस प्रकार १. ज्ञानस्य ग्राहकशक्तिशीलत्वमर्थस्य ज्ञेयशक्तिशीलत्वम् । ..
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