Book Title: Prameyratnamala
Author(s): Shrimallaghu Anantvirya, Rameshchandra Jain
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
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चतुर्थः समुद्देशः
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इति स्वरूपाख्यानं च बन्ध्यासुतसौरूप्यवर्णन मिवासद्विषयत्वादुपेक्षा महंति; अमूर्त्तस्याऽऽकाशस्य मूर्तस्य पृथिव्यादेश्चैककारणकत्वायोगाच्च । अन्यथा अचेतनादपि पञ्चभूत कदम्बकाच्चैतन्य सिद्धेश्चार्वाकमतसिद्धिप्रसङ्गात् साङ्ख्यगन्ध एव न भवेत् । सत्कार्यवादप्रतिषेधश्चान्यत्र विस्तरेणोक्त इति नेहोच्यते; सङ्क्षेपस्वरूपादस्येति ।
तथा विशेष एव तत्त्वम्; तेषामसमानेतर विशेषेभ्योऽशेषात्मना विश्लेषात्मक - त्वात् सामान्यस्यैकस्यानेकत्र व्याप्त्या वर्तमानस्य सम्भवाभावाच्च । तस्यैकव्यक्ति - पदार्थ केवल कारण रूप है, कोई केवल कार्य रूप है, कोई कारण और कार्य दोनों है, कोई दोनों में से एक भी नहीं । मूल प्रकृति कार्य से भिन्न अर्थात् केवल कारण है । जो कार्यों को उत्पन्न करती है, वही प्रकृति है । इसे प्रधान भी कहते हैं, जो कि सत्त्व, रजस् और तमस् गुणों की साम्यावस्था का नाम है । यह कारण ही है, कार्य नहीं । यह क्यों ? इसके उत्तर में कहा है कि यह सकल कार्यों की मूल है। इसका भी मूल मानने पर अनवस्था दोष होगा । महत्, अहंकार और पञ्च तन्मात्र ये सात कारण और कार्य दोनों हैं । प्रकृति और विकृति का अर्थ है - कारण और कार्य । ये सात हैं जो इस प्रकार हैं- महत् तत्त्व अहंकार का कारण और मूल प्रकृति का कार्य है, इस प्रकार अहंकार तत्व पाँच तन्मात्राओं और ग्यारह इन्द्रियों का कारण और महत् तत्त्व का कार्य है । इसी प्रकार पाँच तन्मात्र आकाश इत्यादि पाँच स्कूल भूतों के कारण तथा अहङ्कार के कार्य हैं । - सोलह तत्त्वों ( आकाशादि पाँच स्थूल भूत तथा ११ इन्द्रियाँ ) का समुदाय केवल कार्य ही है, कारण नहीं। पुरुष न कारण है और न कार्य है ।
इस प्रकार स्वरूप का कथन वन्ध्यासुत के सौन्दर्य वर्णन के समान असत् को विषय करने से उपेक्षा के योग्य है; क्योंकि अमूर्त आकाश और मूर्त पृथिवी आदि का एक कारण से उत्पन्न होना सम्भव नहीं है । • अन्यथा अचेतन भो पञ्चभूतों के समूह से चार्वाक मत को सिद्धि के प्रसङ्ग से सांख्यमत की गन्ध भी नहीं रहेगी । सत्कार्यवाद का प्रतिषेध अन्यत्र • ( प्रमेयकमलमार्त्तण्ड में) विस्तार से कहा गया है, अतः यहाँ पर नहीं • कहा जाता है; क्योंकि यह ग्रन्थ संक्षेप स्वरूप वाला है ।
सांख्याभिमत सामान्य का निराकरण होने पर बौद्ध कहता है कि विशेष ही वस्तु का स्वरूप है । जैसे सामान्य का प्रतिपादन सांख्यों ने किया है, उसी प्रकार बौद्धों ने परमाणुरूप पर्यायें स्वीकृत की हैं । ये परमाणु 'प्रतिक्षण विनाशशील, अनित्य, निरंश और परस्पर सम्बन्धरहित हैं । वे विजातीय और सजातीय विशेषों से समस्त रूप से भिन्न स्वरूप वाले हैं;
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