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प्रमेयरत्नमालायां सर्वत्रैव च स्वासाधारणगुणाधारतयोपलभ्यते स तत्रैव तत्र सर्वश्रेव च विद्यते; यथा देवदत्तगृहे एव तत्र सर्वत्रैव चोपलभ्यमानः स्वासाधारणभासुरत्वादिगुणः प्रदीपः । तथा चायम् । तस्मात्तथेति । तदसाधारणगुणा ज्ञानदर्शनसुखवीर्यलक्षणास्ते च सर्वाङ्गीणास्तत्रैव चोपलभ्यन्ते ।
सुखमाल्हादनाकारं विज्ञानं मेयबोधनम् ।
शक्तिः क्रियानुमेया स्यानः कान्तासमागमे ॥ ४१ ॥ इति वचनात् । तस्मादात्मा देहप्रमितिरेव स्थितः ।
द्वितीयं विशेषभेदमाहअर्थान्तरगतो विसदृशपरिणामो व्यतिरेको गोमहिषादिवत् ॥९
वैसादृश्यं हि प्रतियोगिग्रहणे सत्येव भवति । न चापेक्षिकत्वादस्यावस्तुत्वम्; अवस्तुन्यापेक्षिकत्त्वायोगात् । अपेक्षाया वस्तु-निष्ठत्वात् ।
जाता है । उसी प्रकार देह में और उसके सब प्रदेशों में अपने असाधारण गुण के आधार वाला देवदत्त का आत्मा है, इसलिये वह उसके शरीर प्रमाण ही है (जिस प्रकार दीपक के प्रदेशों में संकोच और विस्तार की शक्ति पायी जाती है, उसी प्रकार आत्मा के प्रदेशों में भी शरीर के अनुसार सङ्कोच, विस्तार हो जाता है ) । आत्मा के असाधारण गुणज्ञान, दर्शन, सुख, वीर्य लक्षण वाले गुण आत्मा में हो पाये जाते हैं।
श्लोकार्थ-युवा पुरुष के प्रिया के साथ समागम करने पर आलाद या आनन्द रूप आकार वाले सुख का, ज्ञेय पदार्थ के जानने रूप विज्ञान का और रमण रूप किया से शक्ति का अनुमान किया जाता है ।। ४१ ॥ ऐसा वचन है। इस अनुमान की सामर्थ्य से आत्मा देहारिमाण ही स्थित है। विशेष के दूसरे भेद को कहते हैं
सूत्रार्थ-एक पदार्थ की अपेक्षा अन्य पदार्थ में रहने वाले विसदृश परिणाम को व्यतिरेक कहते हैं। जैसे-गाय, भैंस आदि में विलक्षणपना पाया जाता है ॥ ९॥
वैसा दृश्य प्रतिपक्षी के ग्रहण करने पर ही होता है। आपेक्षिक होने से इस विसदृशता को अवस्तु नहीं कहा जा सकता है, क्योंकि अवस्तु में आपेक्षिकपने का अयोग है। अपेक्षा वस्तु में पायी जाती है।
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