Book Title: Prameyratnamala
Author(s): Shrimallaghu Anantvirya, Rameshchandra Jain
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
View full book text
________________
२२६
प्रमेयरत्नमालायां
अथवा सम्भवद्विद्यमानमन्यद्वादलक्षणं पत्रलक्षणं वाऽन्यत्रोक्तमिह द्रष्टव्यम् । तथा चाह-समर्थवचनं वाद इति ।
प्रसिद्धावयवं वाक्यं स्वेष्टस्यार्थस्य साधकम् । साधुगूढपदप्रायं पत्रमाहुरनाकुलम् ।। ४२ ।। इति
परीक्षामुखमादर्श हेयोपादेयतत्त्वयोः ।
संविदे मादृशो बालः परीक्षादक्षवढ्यधाम् ॥ २ ॥ व्यधामकृतवानस्मि । किमर्थम् ? संविदे। कस्य ? मादृशः । अहं च कथम्भूत इत्याह-बालो मन्दमतिः । अनौद्धत्यसूचकं वचनमेतत् । तत्त्वज्ञत्वञ्च प्रारब्धनिर्वहणादेवावसीयते । किं तत् ? परीक्षामुखम् । तदेव निरूपयति आदर्श मिति । कयोः ? हेयोपादेयतत्त्वयोः यथैवाऽऽदर्श आत्मनोऽलङ्कारमण्डितस्य सौरूप्यं वैरूप्यं वा प्रतिबिम्बोपदर्शनद्वारेण सूचयति, तथेदमपि हेयोपादेयतत्त्वं साधनदूषणोपदर्शनद्वारेण निश्चाययतीत्यादर्शत्वेन निरूप्यते । क इव ? परीक्षादक्षवत् परीक्षादक्ष इव । यथा
__ अथवा शास्त्रार्थ में सम्भव अर्थात् विद्यमान अन्य जो वाद का लक्षण है अथवा पत्र का लक्षण है जो कि पत्र परीक्षा आदि ग्रन्थों में वर्णित है; वह यहाँ पर दर्शनीय है। जैसा कि कहा है-समर्थ वचन को वाद कहते हैं।
श्लोकार्थ-जिसमें ( अनुमान के ) अवयव पाए जायँ जो अपने इष्ट अर्थ का साधक हो, जो निर्दोष गूढ़ रहस्य वाले पदों से व्याप्त हो, ऐसे अनाकुल ( अबाधित ) वाक्य को पत्र कहते हैं ।।४२।।
श्लोकार्थ-छोड़ने योग्य और ग्रहण करने योग्य तत्त्व के ज्ञान के लिए दर्पण के समान इस परीक्षामुख ग्रन्थ को मुझ सदृश बालक ने परीक्षा में निपुण पुरुष के समान रचा ।।२।।
व्यधाम् = किया है। किसलिए? ज्ञान के लिए। किसके ज्ञान के लिए? मुझ जैसे मन्दबुद्धियों के ज्ञान के लिए। मैं कैसा हूँ, इसके विषय में कहा है-बाल-मन्दबुद्धि । यह वचन अनुद्धतता का सूचक है। तत्त्वज्ञता तो प्रारम्भ किए हुए कार्य के निर्वाह से जानी जाती है। वह कार्य क्या है ? परोक्षामुख। उसी का आदर्श के समान निरूपण कर रहे हैं। किनका? हेय और उपादेय तत्त्वों का। जिस प्रकार आदर्श ( दर्पण) अलंकारों में मण्डित अपनी स्वरूपता या विरूपता को प्रतिबिम्ब दिखलाने के द्वारा सूचित करता है, उसी प्रकार यह ग्रन्थ भी हेतु और उपादेय तत्त्व का साधन और दूषण दिखलाने के द्वार से निश्चय कराता है अतः
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org