Book Title: Prameyratnamala
Author(s): Shrimallaghu Anantvirya, Rameshchandra Jain
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad

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Page 268
________________ षष्ठः समुद्देशः २२५ - १. प्रमाण के द्वारा गृहीत ज्ञान के अंश को ग्रहण करने वाला नय है। २. श्रुतविकल्प नय है। ३. ज्ञाता का अभिप्राय विशेष नय है । ४. नाना स्वभाव से जो अलग कर एक स्वभाव में वस्तु को जानकराये वह नय है। इन सब नयों में पूर्व-पूर्व नय बहुविषय वाला और कारण भूत है । बाद बाद वाले नय अल्पविषय और कार्यभूत हैं। संग्रहनय की अपेक्षा नेगम बहुविषय वाला है, क्योकि भाव और अभाव दोनों को विषय करता है। जैसे सत् वस्तु के विषय में संकल्प होता है, उसी प्रकार असत् के 'विषय में भी होता है। संग्रहनय का विषय नैगम नय से अल्प विषय वाला, क्योंकि वह सत्ता मात्र को विषय करता है, उसका कार्य नेगम पूर्वक है। संग्रह से व्यवहार भी तत्पूर्वक है, वह सत् मात्र की जानकारी कराने वाले संग्रह नय की अपेक्षा अल्पविषय वाला ही है। तीनों कालों के पदार्थों को विषय बनाने वाले व्यवहारनय से ऋजसूत्र भी तत्पूर्वक है, क्योंकि ऋजुसूत्र का विषय वर्तमानकालवर्ती पदार्थ है । इस प्रकार ऋजुसूत्र व्यवहार नय की अपेक्षा अल्पविषय वाला है। कारकादि भेद से अभिन्नार्थ का प्रतिपादन करने वाला ऋजुसूत्र है। तत्पूर्वक शब्द नय है, जो कि अल्पविषय वाला है। पर्याय भेद से अर्थभेद का प्रतिपादन करने वाले शब्दनय से तत्पूर्वक होने वाला समभिरूढ़ नय अल्पविषय वाला ही है। क्रिया भेद से भिन्न अर्थ को प्रकट करने वाले समभिरूढ नय से तत्पूर्वक होने वाला एवम्भूत अल्पविषय वाला ही है। जहाँ उत्तर उत्तर नय पदार्थ के अंश में प्रवृत्त करते हैं, वहाँ पूर्व-पूर्व नय विद्यमान रहता ही है। जैसे एक हजार में सात सौ अथवा सात सौ में पाँच सौ। किसी पक्षी की आवाज को उदाहरण मानकर सातों नयों में इस प्रकार घटित किया है। नैगम नय वाला कहता है कि ग्राम में पक्षी की आवाज हो रही है । संग्रह नय वाला कहता है कि वृक्ष पर पक्षी बोल रहा है। व्यवहार नय वाला कहता है कि तने पर पक्षी बोल रहा है। ऋजसूत्र नय वाला कहता है कि शाखा पर पक्षो बोल रहा है। शब्द नय वाला कहता है कि घोंसले में पक्षी बोल रहा है। समभिरूढ़ नय वाला कहता है कि अपने शरीर में पक्षी बोल रहा है। एवम्भूत नय वाला कहता है कि पक्षी कण्ठ में बोल रहा है। (टिप्पण) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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