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पञ्चमः समुद्देशः
१९१ अयमर्थः-यस्यैवात्मनः प्रमाणाकारेण परिणतिस्तस्यैव फलरूपतया परिणाम इत्येकप्रमात्रपेक्षया प्रमाणफलयोरभेदः । करणक्रियापरिणामभेदाद् भेद इत्यस्य सामर्थ्यसिद्धत्वान्नोक्तम् ।
पारम्पर्येण साक्षाच्च फलं द्वेधाऽभिधायि यत् ।
देवैभिन्नमभिन्न च प्रमाणात्तदिहोदितम् ।। ११ ।। इति परीक्षामुखलघुवृत्तौ फलसमुद्देशः पञ्चमः । का त्याग करता है, इष्ट प्रयोजन के प्रसाधक पदार्थ को ग्रहण करता है और इष्ट तथा अनिष्ट प्रयोजन का जो प्रसाधक नहीं है, ऐसे (उपेक्षणीय) पदार्थ की उपेक्षा है । इस प्रकार प्रतीति से सिद्ध है ।।३।।
इसका यह अर्थ है कि जिस हो आत्मा को प्रमाण के आकार से परिणति होती है, उसके ही फल रूप से परिणाम होता है। इस प्रकार एक प्रमाता की अपेक्षा प्रमाण और फल में अभेद है। करण और क्रिया रूप परिणाम के भेद से प्रमाण और फल में भेद है। इस भेद की सिद्धि सामर्थ्य होने के कारण कथन नहीं किया है।
श्लोकार्थ-आचार्य अकलंकदेव और माणिक्यनन्दि देव ने प्रमाण के जिस फल को साक्षात् और पारम्पर्य के भेद से दो प्रकार का कहा है, वह प्रमाण से कथंचित् भिन्न है, कथंचित् अभिन्न भी है । वही यहाँ अनन्तवीर्य के द्वारा कहा गया है ।।११।। इस प्रकार परीक्षामुख की लघुवृत्ति में प्रमाण के फल का कथन
करने वाला पाँचवाँ समुद्देश समाप्त हुआ।
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