________________
२१६
प्रमेयरत्नमालायां
प्रमाणवादिभिश्च स्वसंवेदनेन्द्रियप्रत्यक्षभेदोऽनुमानादिभेदश्च प्रतिभासभेदेन व वक्तव्यो गत्यन्तराभावात् । स च तद्भदो लोकायतिकं प्रति प्रत्यक्षानुमानयोरितरेषां व्याप्तिज्ञानप्रत्यक्षादिप्रमाणेष्विति सर्वेषां प्रमाणसङ्ख्या विघटते । तदेव दर्शयति
प्रतिभासभेदस्य च भेदकत्वात् ॥ ६० ॥ इदानीं विषयाभासमुपदर्शयितुमाहविषयाभासः सामान्यं विशेषो द्वयं वा स्वतन्त्रम् ॥ ६१ ॥ कथमेषां तदाभासतेत्याह
तथाऽप्रतिभासनात्कार्याकरणाच्च ॥ ६२ ॥ किञ्च तदेकान्तात्मकं तत्त्वं स्वयं समर्थमसमर्थ वा कार्यकारि स्यात् ? प्रथमपक्षे दूषणमाह
के स्वसंवेदन और इन्द्रिय प्रत्यक्ष रूप भेद तथा प्रमाणों के अनुमानादि भेद प्रतिभास के भेद से ( सामग्री और स्वरूप के भेद से ) कहना चाहिये। क्योंकि इसके बिना उनकी कोई गति नहीं है। वह प्रतिभास का भेद चार्वाक के प्रति प्रत्यक्ष और अनुमान में तथा सौगतादि अन्य मत वालों के व्याप्तिज्ञान और प्रत्यक्षादि प्रमाणों में अनुभवगम्य है, अतः सभी की प्रमाण संख्या का विघटन हो जाता है। इसी बात को दिखलाते हैं( अनुमान का प्रामाण्य हो, किन्तु उसका अन्तर्भाव प्रत्यक्ष में ही होता है, ऐसा कहने पर कहते हैं )।
सूत्रार्थ-प्रतिभास का भेद ही प्रमाणों का भेदक होता है ।। ६० ।। ( अतः प्रत्यक्ष में अनुमान का अन्तर्भाव नहीं हो सकता है ) अब विषयाभास को बतलाने के लिए कहते हैं
सूत्रार्थ-केवल सामान्य को, केवल विशेष को अथवा स्वतन्त्र दोनों को प्रमाण का विषय मानना विषयाभास है॥६१ ॥
इनकी विषयाभासता कैसे है। इसके विषय में कहते हैं
सूत्रार्थ-केवल सामान्य रूप से, केवल विशेष रूप से अथवा स्वतन्त्र दोनों रूप से वस्तु का प्रतिभास नहीं होता है तथा केवल सामान्य, केवल विशेष अथवा स्वतन्त्र दोनों अपना कार्य नहीं कर सकते ॥ ६२ ॥
दूसरी बात यह है कि वह एकान्तात्मक तत्त्व स्वयं समर्थ अथवा असमर्थ होकर कार्यकारी होता है, यह प्रश्न है। प्रथम पक्ष मानने पर दोष कहते हैं
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org