Book Title: Prameyratnamala
Author(s): Shrimallaghu Anantvirya, Rameshchandra Jain
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
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षष्ठः समुद्देशः अत्रापि प्राक्तन्येव प्रक्रिया योजनीया । अभेदपक्षं निराकृत्य आचार्य उपसंहरति
तस्माद्वास्तवो भेदः ॥ ७० ॥ भेदपक्षं दूषयन्नाह
भेदे त्वात्मान्तरवत्तदनुपपत्तेः ॥ ७१ ॥ अथ यत्रवात्मनि प्रमाणं समवेतं फलमपि तत्रैव समवेतमिति समवायलक्षणप्रत्यासत्त्या प्रमाणफलव्यवस्थितिरिति, नात्मान्तरे तत्प्रसङ्ग इति चेत्तदपि न सूक्तमित्याह
समवायेऽतिप्रसंगः ॥ ७२ ॥ समवायस्य नित्यत्वाद् व्यापकत्वाच्च सर्वात्मनामपि समवायसमानधर्मिकत्वान्न ततः प्रतिनियम इत्यर्थः।
अन्य प्रमाण की व्यावृत्ति से जैसे प्रमाण के अप्रमाणपने का प्रसंग आता है, उसी प्रकार यहाँ भी पहले वालो हो प्रक्रिया लगानी चाहिये। अभेद पक्ष का निराकरण कर आचार्य उपसंहार करते हैं
सत्रार्थ-अतःप्रमाण और फल में वास्तविक भेद है ।। ७० ॥
(फल का परमार्थ से भेद है, कल्पित भेद नहीं है। वास्तविक भेद के अभाव में प्रमाण और फल व्यवहार ही नहीं बन सकता है)।
भेद पक्ष में दोष दिखलाते हुए कहते हैं
सत्रार्य-भेद मानने पर अन्य आत्मा के समान यह इस प्रमाण का फल है, ऐसा व्यवहार नहीं हो सकता है ।। ७१ ।।।
नैयायिक-जिस आत्मा में प्रमाण समवाय सम्बन्ध से सम्बद्ध है, उस आत्मा में फल भी समवाय सम्बन्ध से सम्बद्ध है, अतः समवाय स्वरूप प्रत्यासत्ति से प्रमाण और फल की व्यवस्था बन जायगी, अन्य आत्मा में फल के मानने का प्रसंग नहीं आयगा।
जेन-आपका उपर्युक्त कथन भी ठीक नहीं है। इसके विषय में कहते हैं
सूत्रार्थ-समवाय के मानने पर अति प्रसंग दोष आता है ।। ७२ ॥
समवाय के नित्य तथा व्यापक होने से वह सभी आत्माओं में समान धर्म रूप से रहेगा। अतः यह फल इसी प्रमाण का है, अन्य का नहीं है। इस प्रकार के प्रतिनियम का अभाव होगा।
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