Book Title: Prameyratnamala
Author(s): Shrimallaghu Anantvirya, Rameshchandra Jain
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad

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Page 261
________________ २१८ प्रमेयरत्नमालायां अथ फलाभासं प्रकाशयन्नाह फलाभासं प्रमाणादभिन्न भिन्नमेव वा ॥६६॥ कुतः पक्षद्वयेऽपि तदाभासतेत्याशङ्कायामाद्यते तदाभासत्वे हेतुमाह अभेदे तद्वयवहारानुपपत्तः ॥ ६७॥ फलमेव प्रमाणमेव वा भवेदिति भावः । व्यावृत्या संवृत्यपरनामधेयया तत्कल्पनाऽस्त्वित्याहव्यावृत्यापि न तत्कल्पना फलान्तराद् व्यावृत्याऽफलत्व प्रसंगात् ॥ ६८॥ अयमर्थः-यथाऽफलाद्विजातीयात्फलस्य व्यावृत्त्या फलव्यवहारस्तथा फलान्तरादपि सजातीयाद् व्यावृत्तिरप्यस्तीत्यफलत्वम् । अत्रैवाभेदपक्षे दृष्टान्तमाह प्रमाणान्तराव्यावृत्त्येवाप्रमाणत्वस्य ॥ ६९ ॥ अब फलाभास को प्रकाशित करते हुए कहते हैं सूत्रार्थ-प्रमाण से उसके फल को सर्वथा अभिन्न अथवा सर्वथा भिन्न मानना फलाभास है ।। ६६ ।। इन दोनों ही पक्षों में फलाभासता कैसे है, ऐसी आशङ्का होने पर आदि पक्ष में ( सर्वथा अभिन्न पक्ष में ) फलाभासता बतलाने के लिये हेतु कहते हैं सूत्रार्थ-यदि प्रमाण से फल सर्वथा अभिन्न माना जाय तो प्रमाण और फल में ( यह प्रमाण है, यह फल है, इस प्रकार का ) व्यवहार ही नहीं हो सकता है ।। ६७॥ ( अभेद पक्ष में ) या तो फल ही होगा या प्रमाण ही होगा, यह भाव है। सत्रार्थ-अफल की व्यावत्ति से भी फल की कल्पना नहीं की जा सकती अन्यथा फलान्तर की व्यावृत्ति से अफलपने की कल्पना का प्रसंग आ जायेगा ।। ६८ ।। यह अर्थ है-जिस प्रकार फल से विजातीय अफल की व्यावृत्ति से फल का व्यवहार करते हैं, उसी प्रकार फलान्तर-अन्य प्रमिति रूप सजातीय फल की व्यावृत्ति से अफलपने का प्रसंग आता है। अब अभेद पक्ष में दृष्टान्त कहते हैं सूत्रार्थ-जैसे प्रमाणान्तर की व्यावृत्ति से अप्रमाणपने का प्रसंग आता है ।। ६९॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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