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प्रमेयरत्नमालायां इदानीं संख्याभासमाह
प्रत्यक्षमेवैकं प्रमाणमित्यादि सङ्ख्याभासम् ॥ ५५ ॥ प्रत्यक्षपरोक्षभेदाद् द्वैविध्यमुक्तम् । तद्वैपरीत्येन प्रत्यक्षमेव, प्रत्यक्षानुमाने एवेत्यवधारणं सङ्ख्याभासम् । प्रत्यक्षमेवैकमिति कथं सङ्ख्याभासमित्याह
लोकायतिकस्य प्रत्यक्षतः परलोकादिनिषेधस्य परबुद्धयादेश्चासिद्धरतद्विषयत्वात् ॥ ५६ ॥ ___ अतद्विषयत्वादप्रत्यक्षविषयत्वादित्यर्थः। शेष सुगमम् । प्रपञ्चितमेवैतत्सङ ख्याविप्रतिपत्तिनिराकरण इति नेह पुनरुच्यते ।
इतरवादिप्रमाणेयत्तावधारणमपि विघटत इति लोकायतिकदृष्टान्तद्वारेण तन्मतेऽपि सङ्ख्याभासमिति दर्शयति
वाक्यों में प्रामाणिकता नहीं है। उन्हें प्रमाण विशेष रूप आगम कैसे मान .. सकते हैं।
अब संख्याभास के विषय में कहते हैं
सूत्रार्थ-प्रत्यक्ष ही एक प्रमाण है, इत्यादि कहना संख्याभास है॥५५॥
प्रत्यक्ष और परोक्ष के भेद से प्रमाण दो प्रकार का कहा गया है। उससे विपरीत प्रत्यक्ष हो एक प्रमाण है अथवा प्रत्यक्ष और अनुमान ये ही दो प्रमाण हैं, इस प्रकार निश्चय करना संख्याभास है ।
प्रत्यक्ष ही एक मात्र प्रमाण है, यह संख्याभास कैसे है, इसके विषय में कहते हैं___ सूत्रार्थ-चार्वाक का प्रत्यक्ष को ही प्रमाण मानना इसलिए संख्याभास है कि प्रत्यक्ष से परलोक आदि का निषेध और पर की बुद्धि आदि की सिद्धि नहीं होती है। क्योंकि वे उसके विषय नहीं हैं ॥५६।।
वे उसके विषय नहीं हैं का तात्पर्य प्रत्यक्ष के विषय नहीं हैं, यह है। शेष सूत्रार्थ सुगम है। संख्या-विप्रतिपत्ति के निराकरण के समय इसका विस्तार से निरूपण कर चुके हैं, अतः यहाँ पुनः नहीं कहते हैं। ____ अन्य वादियों द्वारा मानी गई प्रमाण की संख्या का नियम भी विघटित होता है। अतः चार्वाक के दृष्टान्त द्वारा बौद्धादि के मत में संख्याभास है, इस बात को दिखलाते हैं
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