Book Title: Prameyratnamala
Author(s): Shrimallaghu Anantvirya, Rameshchandra Jain
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad

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Page 240
________________ १९७ षष्ठः समुदेशः मव्याप्तिश्च, सन्निकर्षप्रत्यक्षवादिनां चक्षुषि सन्निकर्षस्याभावात् । अतिव्याप्ति का कथन उपलक्षण रूप है, अतः इससे अव्याप्ति का भी ग्रहण करना चाहिये। (कदाचित् असम्बद्ध उपलक्षण है। जैसे-काक से उपलक्षित घर) सन्निकर्ष प्रमाण है, इस प्रकार लक्षण के होने पर चक्षु और रस में संयुक्त समवाय सन्निकर्ष है, परन्तु वहाँ पर चक्षु से रस का ज्ञान नहीं है। अतः प्रमिति के अभाव में भी लक्षण का सद्भाव होने से अतिव्याप्ति है। चक्षु और मन के प्रमिति उत्पादकता है, सन्निकर्षपना नहीं है । अतः लक्ष्य मात्र में अव्याप्त होने से लक्षण की अव्याप्ति है। आशय यह है कि जब सन्निकर्ष की प्रमाणता करते हैं, तब चक्षु और रस द्रव्य में संयुक्त समवाय की भी प्रमाण ता का प्रसंग हो, इस प्रकार से अतिव्याप्ति है। लक्ष्य और अलक्ष्य में पाये जाने को अतिव्याप्ति कहते हैं। चक्ष के बिना इतर इन्द्रियों को सन्निकर्ष सम्बन्ध है, अतः अव्याप्ति है। लक्ष्य के एकदेश में पाये जाने को अव्याप्ति कहते हैं )। सन्निकर्ष प्रत्यक्षवादियों चक्षु में सन्निकर्ष का अभाव है। ( इससे असम्भावित दूषण को दिखलाया गया है। चक्षु अप्राप्यकारी है। क्योंकि वह छूकर पदार्थों का ज्ञान नहीं करती है। यदि चक्ष प्राप्यकारी होती तो स्पर्शन इन्द्रिय के समान छुए हुए ( छूकर ) अञ्जन को ग्रहण करती। चूंकि ग्रहण नहीं करती है अतः मन के समान अप्राप्यकारी है, ऐसा जानना चाहिये। ) विशेष-नैयायिकों के यहाँ सन्निकर्ष छः प्रकार का होता है-(१) संयोग, (२) संयुक्त समवाय, (३) संयुक्त समवेत समवाय, (४) समवाय, (५) समवेत समवाय और (६) विशेष्य विशेषणभाव । उनमें जब चक्षु से घटविषयक ज्ञान उत्पन्न होता है, तब चक्षु इन्द्रिय और घट अर्थ होता है। इन दोनों का सन्निकर्ष संयोग ही होता है; क्योंकि अयुतसिद्धि का अभाव है । इसी प्रकार अन्तःकरण मन से जब आत्मविषयक ज्ञान होता है, तब मन इन्द्रिय और आत्मा अर्थ इन दोनों का सम्बन्ध संयोग ही होता है। ___जब चक्षु आदि से घटगत रूपादिक का ग्रहण होता है कि घट में श्याम रूप है, तब चक्षुः इन्द्रिय और घटरूप अर्थ होता है और इन दोनों का सन्निकर्ष संयुक्त समवाय होता है। चक्षु से संयुक्त घट में रूप का समवाय होने से चक्षु इन्द्रिय और घटरूप अर्थ का संयुक्त समवाय सन्निकर्ष होता है । इसी प्रकार मन से आत्मा में रहने वाले सुखादि गुणों Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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