Book Title: Prameyratnamala
Author(s): Shrimallaghu Anantvirya, Rameshchandra Jain
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
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प्रमेयरत्नमालायां
नामशुचित्वमेवेति लोकबाधितत्वम् ।
स्ववचनबाधितमाह — माता मे वन्ध्या
पुरुषसंयोगेऽप्यगर्भत्वात्प्रसिद्धवन्ध्यावत् ॥ २०॥
इदानीं हेत्वाभासान् क्रमापन्नानाह
हेत्वाभासा असिद्धविरुद्धानैकान्तिका किञ्चित्कराः ॥ २१ ॥
एषां यथाक्रमं लक्षणं सोदाहरणमाह
असत्सत्तानिश्चयोऽसिद्धः ॥ २२ ॥
सत्ता च निश्चयश्च सत्तानिश्चयौ । असन्तौ सत्तानिश्चयौ यस्य स भवत्यसत्सत्तानिश्चयः ।
तत्र प्रथमभेदमाह
अविद्यमानसत्ताकः परिणामी शब्दश्चाक्षुषत्वात् ॥ २३ ॥
कथमस्यासिद्धत्वमित्याह
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स्वरूपेणासत्त्वात् ॥ २४ ॥
अपवित्र ही हैं । अतः नर-कपाल को पवित्र कहना लोकबाधित पक्षाभास है ।
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स्ववचनबाधित के विषय में कहते हैं
सूत्रार्थ - मेरी माता बन्ध्या है; क्योंकि पुरुष का संयोग होने पर भी उसके गर्भ नहीं रहता है । जैसे- प्रसिद्ध वन्ध्या स्त्री ।। २० ।।
अब क्रमप्राप्त हेत्वाभासों को कहते हैं
सूत्रार्थ - असिद्ध, विरुद्ध, अनैकान्तिक और अकिञ्चित्कर हेत्वाभास हैं ॥ २१ ॥
इनका यथाक्रम लक्षण उदाहरण सहित कहते हैं
सूत्रार्थ - जिस हेतु को सत्ता का अभाव हो अथवा निश्चय न हो, उसे असिद्ध हेत्वाभास कहते हैं ।। २२ ।।
'सत्ता च निश्चयश्च सत्तानिश्चयौ', इस प्रकार द्वन्द्व समास है । जिसकी सत्ता के निश्चय का अभाव हो वह असत्सत्ता निश्चय है । असिद्ध हेत्वाभास के प्रथम भेद को कहते हैं
सूत्रार्थ -- शब्द परिणामों है; क्योंकि चाक्षुष है, यह अविद्यमान सत्ता -वाले स्वरूपसिद्ध हेत्वाभास का उदाहरण है || २३ ॥
इस हेतु के असिद्धपना कैसे है? इसके विषय में कहते हैंसूत्रार्थ - शब्द का चाक्षुष होना स्वरूप से ही असिद्ध है || २४ ॥
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