Book Title: Prameyratnamala
Author(s): Shrimallaghu Anantvirya, Rameshchandra Jain
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
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प्रमेयरत्नमालायां तूर्खतासामान्यपर्यायाख्यं विशेषद्वयरूपं वस्तु समथितं भवति । अथ प्रथमोद्दिष्टसामान्यभेदं दर्शयन्नाह
सामान्यं द्वधा तिर्यगूलताभेदात् ॥ ३ ॥ प्रथमभेदं सोदाहरणमाह
सदृशपरिणामस्तिर्यक्, खण्डमुण्डादिषु गोत्ववत् ॥ ४ ॥ नित्यकरूपस्य गोत्वादेः क्रमयोगपद्याभ्यामर्थक्रियाविरोधात्-प्रत्येकं परिसमाप्त्या व्यक्तिषु वृत्त्ययोगाच्चानेकं सदृशपरिणामात्मकमेवेति तिर्यक्सामान्यमुक्तम् ।
द्वितीयभेदमपि सदृष्टान्तमुपदर्शयतिपरापरविवर्तव्यापि द्रव्यमूर्ध्वता मुदिव स्थासादिषु ।। ५॥ सामान्यमिति वर्तते । तेनायमर्थः-ऊर्ध्वतासामान्यं भवति । किं तत् ?
इन दोनों के साथ जो स्थिति है, वही लक्षण जिस परिणाम का है, उस परिणाम से अर्थक्रिया बन जाती है। इस हेतु से ऊर्ध्वता सामान्य और विशेष रूप वस्तु का समर्थन होता है ।
अब पहले जिसका कथन किया है, ऐसे सामान्य के भेद को दिखलाते हुए कहते हैं
सूत्रार्थ-सामान्य दो प्रकार का है-१. तिर्यक् सामान्य और २. ऊर्ध्वता सामान्य ॥ ३ ॥
पहले भेद के विषय में उदाहरणपूर्वक कहते हैं
सूत्रार्थ-सदृश परिणाम को तिर्यक् सामान्य कहते हैं। जैसे खण्डी, मुण्डी आदि में गोपना ।। ४ ।।
नित्य और एक रूप गोत्व आदि के क्रम और योगपद्य से अर्थक्रिया का विरोध है। तथा एक सामान्य के एक व्यक्ति में साकल्य रूप से रहने पर अन्य व्यक्तियों में रहना सम्भव नहीं है। अतः अनेक और सदृश परिणाम ही सामान्य है। इस प्रकार तिर्यक् सामान्य का स्वरूप कहा।
सामान्य के दूसरे भेद को भी दृष्टान्त के साथ दिखलाते हैं
सूत्रार्थ-पूर्व और उत्तर पर्यायों में रहने वाले द्रव्य को ऊर्ध्वता सामान्य कहते हैं, जैसे स्थासादि में मिट्टी रहती है ।।५।।
यहाँ पर सामान्य पद की अनुवृत्ति होती है। उससे यह अर्थ होता है कि यह ऊर्ध्वता सामान्य है। वह क्या वस्तु है ? द्रव्य है । वह द्रव्य
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