Book Title: Prameyratnamala
Author(s): Shrimallaghu Anantvirya, Rameshchandra Jain
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
View full book text
________________
१८३
चतुर्थः समुद्देशः द्रव्यम् । तदेव विशिष्यते परापरविवर्तव्यापीति पूर्वापरकालवति त्रिकालानुयायोत्यर्थः। चित्रज्ञानस्यैकस्य युगपद्भाव्य नेकस्वगतनीलाद्याकारव्याप्तिवदेकस्य क्रमभाविपरिणाम व्यापित्वमित्यर्थः । विशेषस्यापि द्वैविध्यमुपदर्शयति
विशेषश्च ॥६॥ द्वेधेत्यधिक्रियमाणेनाभिसम्बन्धः ।
पर्यायव्यतिरेकभेदात् ॥ ७॥ तदेव प्रतिपादयतिप्रथमविशेषभेदमाह
एकस्मिन् द्रव्ये क्रमभाविनः परिणामाः पर्याया आत्मनि हर्षविषादादिवत् ॥ ८॥
अत्रात्मद्रव्यं स्वदेहप्रमितिमात्रमेव, न व्यापकम्, नापि वटकणिकामात्रम् । न च कायाकारपरिणतभूतकदम्बकमिति । परापरविवर्तव्यपि' इस विशेषण से विशिष्ट है। परापरविवर्तव्यापि इस पद का अर्थ है-पूर्वापरकालवति या त्रिकाल अनुयायी। जैसे एक चित्र ज्ञान एक साथ होने वाले अपने अन्तर्गत अनेक नील-पीतादि आकारों में व्याप्त रहता है, उसी प्रकार ऊर्ध्वतासामान्य रूप द्रव्य काल क्रम से होने वाली पर्यायों में व्याप्त होकर रहता है। विशेष भी दो प्रकार का है, यह दिखलाते हैं
सूत्रार्थ-विशेष भी दो प्रकार का है ॥६॥ द्वेधा, इस पद का अधिकार से सम्बन्ध किया गया है।
सूत्रार्थ-पर्याय और व्यतिरेक के भेद से विशेष दो प्रकार का है ॥७॥ विशेष के प्रथम भेद को कहते हैं
सूत्रार्थ-एक द्रव्य में क्रम से होने वाले परिणामों को पर्याय कहते हैं । जैसे-आत्मा में हर्ष विषादादिक ॥८॥ __यहाँ पर आत्म द्रव्य अपने शरीर के प्रमाण मात्र ही है, न व्यापक है और न वटकणिका मात्र है और न शरीराकार से परिणत भूतों के समुदाय रूप है।
विशेष-ज्ञान, सुख, वीर्य, दर्शन आदि चूंकि आत्मा के सहभावी हैं,
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org