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चतुर्थः समुद्देशः
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पक्षः, समवाये समवायानम्युपगमात्; पञ्चानां समवायित्वमिति वचनात् । वृत्त्य - न्तरकल्पनायां तदपि स्वसम्बन्धिषु वर्तते न वेति कल्पनायां वृत्त्यन्तरपरम्पराप्राप्तेरनवस्था । वृत्त्यन्तरस्य स्वसम्बन्धिषु वृत्त्यन्तरानभ्युपगमान्नानवस्थेति चेत्ताह समवायेऽपि वृत्यन्तरं माभूत् । अथ समवायो न स्वाश्रयवृत्तिरङ्गीक्रियते तर्हि षण्णामाश्रितत्वमिति ग्रन्थो विरुध्यते । अथ समवायिषु सत्स्वेव समवायप्रतीतेस्तस्याश्रितत्वमुपलभ्यते, तर्हि मूर्त्तद्रव्येषु सत्स्वेव दिग्लिङ्गस्येदमतः पूर्वेण इत्यादि - ज्ञानस्य, काललिङ्गस्य च परापरादिप्रत्ययस्य सद्भावात्तयोरपि तदाश्रितत्वं स्यात् । तथा चायुक्तमेतदन्यत्र नित्यद्रव्येभ्य इति । किञ्च समवायस्यानाश्रितत्वे सम्बन्धरूपतैव न घटते । तथा च प्रयोगः -- समवायो न सम्बन्धः; अनाश्रितत्वाद्दिगादिवदिति । अत्र समवायस्य धर्मिणः कथञ्चित्तादात्म्यरूपस्याने कस्य च परः वाला है यदि यह मानों तो आप लोगों में समवाय में समवायों को नहीं माना है । आपके यहाँ कहा गया है कि द्रव्य, गुण, कर्म, सामान्य और विशेष इन पाँच पदार्थों में ही समवाय सम्बन्ध होता है । सम्बन्ध से सम्बन्ध वाला है, ऐसी कल्पना करने पर वह सम्बन्ध भी अपने सम्बन्धियों में है अथवा नहीं है, इस प्रकार की कल्पना होने पर अन्य सम्बन्ध की परम्परा प्राप्त होने से अनवस्था दोष आता है । सम्बन्ध का ( विशेषण विशेष्य भाव का ) अपने सम्बन्धियों में ( दण्डदण्ड में ) सम्बन्धान्तर स्वीकार न करने से अनवस्था नहीं आती है, यदि आप ऐसा कहते हैं तो हमारा कहना है कि समवाय में सम्बन्धान्तर न हो । यदि आप लोग ( नैयायिक ) कहें कि समवाय को स्वाश्रय ( तन्तु पराश्रय ) वृत्ति अंगीकार नहीं करते हैं तो छह पदार्थों के आश्रितपना है, यह आपका ग्रन्थ विरोध को प्राप्त होता है ।
अन्य
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योग - समवायियों के होने पर समवाय की प्रतीति होती है अतः समवाय के आश्रितपने की प्राप्ति होती है ।
जैन - तो मूर्त द्रव्यों के होने पर ही दिशा रूप द्रव्य का लिंग जो यह इससे पूर्व में है इत्यादि ज्ञान के और काल द्रव्य का लिंग जो पर अपरादि प्रत्यय का सद्भाव है उसके पाए जाने से दिशा और काल को भी मूर्त द्रव्यों के आश्रित मानना पड़ेगा। ऐसा होने पर 'नित्य द्रव्यों को छोड़कर ', ऐसा सूत्र कहना अयुक्त ही है । दूसरी बात यह है कि समवाय के अनाश्रितपना मानने पर सम्बन्धरूपता ही घटित नहीं होती है । - वचनात्मक अनुमान प्रयोग इस प्रकार है
समवाय सम्बन्ध नहीं है; क्योंकि वह दिशा आदि के समान अनाश्रित है । यहाँ पर समवाय रूप धर्मी के कथञ्चित् तादात्म्य और अनेक होने
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